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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास गद्य-पद्य की योजना भी इस चरित्र में की गई है। इनमें से कुछ प्राचीन अर्धमागधी भागों से उद्धरण के रूप में उद्धृत किये गये है और कुछ की रचना स्वयं कवि ने की है। यह चरित विविध अलंकारों की योजना से समृद्ध है। शब्दालंकारों में अनुप्रास और यमक का प्रयोग तो प्रचुर हुआ है पर अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक का ही अधिक प्रयोग हुआ है। इस चरित में विविध छन्दों का प्रयोग द्रष्टव्य है। महाकाव्य के परम्परागत नियमों का पालन न कर प्रत्येक सर्ग में अनेक वृत्तों का प्रयोग भी किया गया है, छन्द बहुत जल्दी-जल्दी बदले गये हैं। वैसे काव्य में अनुष्टुप् का प्रयोग सबसे अधिक. है। उसके बाद उपजाति, वसन्ततिलका, वंशस्थ और शार्दूलविक्रीडित का प्रयोग क्रमशः कम होता गया है। अन्य छन्दों में स्वागता, हरिणी, स्रग्धरा, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, आर्या आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है।
कविपरिचय और रचनाकाल-इस चरित के अन्त में कवि ने अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन किया है जिससे शात होता है कि इसके रचयिता कमलप्रभरि हैंबो चन्द्रगच्छीय साधु थे। उनके पूर्ववर्ती आचार्यों में चन्द्रगच्छ में चन्द्रप्रभसरि के शिष्य धर्मघोषसरि हुए जिनके चरणों की वन्दना जयसिंह नृप भी करता था। धर्मघोषसरि के पश्चात् उनके पट्ट पर क्रमशः कूर्चालसरस्वती की उपाधि से विभूषित चक्रेश्वरसूरि आदि कई आचार्य हुए उनमें से एक रत्नप्रमहरि थे। पुण्डरीकचरित के रचयिता कमलप्रभसूरि इन्हीं रत्नप्रभसूरि के शिष्य थे। कमलप्रभसूरि ने इस काव्य की रचना गुजरात के एक नगर धवलक्क (घोलका) में वि० सं० १३७२ में की है। प्रस्तुत काव्य के निर्माण की प्रेरणा कवि को मुनियों से मिली थी। इस काव्य का आधार भद्रबाहुकृत शत्रुजयमाहात्म्य, वनस्वामीकृत शत्रुजयमाहात्म्य और पादलिप्तसूरिकृत शत्रुजयकल्प बतलाया गया है।
अन्य महापुरुषों में भगवान् मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में रामचन्द्र के चरित. से सम्बद्ध सीता, लक्ष्मण चरित्र के अतिरिक्त सुग्रीव पर सुग्रीवचरित्र' (प्राकृत) मिकता है।
१. पुण्डरीकचरित, सर्ग ३, रलो. १०.११. २. श्रीविक्रमराज्येन्द्रात् त्रयोदशशवमिते ।
वाससत्यधिक वर्षे विहिवं धवलक्के ॥. ३. जिनरत्नको श, पृ. ४४४.
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