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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास दूसरी कृति संस्कृत गद्य में है। इसकी रचना तपागच्छीय प्रभावक आचार्य यशोविजय के गुरुभाई पद्मविजय ने सं० १८५८ में की है। इस कृति का आधार मुनिसुन्दरकृत रचना है।' प्रकीर्णक पात्रों के चरित्र:
उपर्युक्त श्रेणीबद्ध (तीर्थकर चक्रवर्ती से लेकर प्रत्येकबुद्ध तक) चरित्रों और पौराणिक काव्यों के अतिरिक्त संस्कृत-प्राकृत में अनेकों प्रकीर्णक काव्य मिलते हैं जिनमें ऐसे पात्रों का चरित्र चित्रित है जो उपयुक्त तीर्थकर-चक्रवर्ती आदि के जीवन से सम्बद्ध थे या समकालिक थे और उनके भव्य जीवन के प्रति कवियों और श्रोताओं की विशेष अभिरुचि थी। यहाँ हम पहले तीर्थकर से अन्तिम तीर्थकर तक के कालों में समागत पात्रों पर आश्रित प्रमुख काव्यों का परिचय प्रस्तुत करते हैं।
जयकुमार-सुलोचनाचरित-भरत चक्रवर्ती के सेनापति और हस्तिनापुर के नरेश जयकुमार (मेघेश्वर ) तथा उनकी रानी सुलोचना के कौतुकपूर्ण चरित को लेकर जैन कवियों ने सुलोचनाकथा या चरित, जयकुमारचरित', सुलोचनाविवाह नाटक (विक्रान्तकौरव नाटक) आदि विविध रूप में काव्य लिखे । कथा प्रसंग में कवियों को उक्त चरित की कई बातें रोचक लगी। जयकुमार सौन्दर्य और शील के भण्डार थे। एक समय वे काशिराज अकंपन की पुत्री सुलोचना के स्वयंवर में आये। अनेको सुन्दर राजकुमारों, यहाँ तक कि चक्रवती भरत के पुत्र अककीर्ति के रहने पर भी, सुलोचना ने वरमाला जयकुमार के गले में डाल दी। स्वयंवर समाप्त होते ही भरत के पुत्र अकीर्ति और जयकुमार के बीच युद्ध ठन गया पर विजय जयकुमार की हुई। इस अप्रिय घटना की सूचना भरत चक्रवर्ती के पास भेजी गई। इस पर चक्रवर्ती ने नयकुमार की ही बहुत प्रशंसा की। विवाह के अनन्तर विदा लेकर जयकुमार चक्रवर्ती से मिलने अयोध्या जाते हैं और वहाँ से लौटकर जब वे अपने पड़ाव की ओर आते हैं तो मार्ग में गंगा नदी पार करते समय उनके हाथी को एक देवी ने मगर का रूप धारणकर प्रस लिया जिससे जयकुमार-सुलोचना हाथी. सहित गंगा में डूबने लगे। तब सुलोचना ने पंच-नमस्कार-मंत्र की आराधना से उस उपसर्ग को दूर किया। हस्तिनापुर पहुँचकर जयकुमार और सुलोचना
1. जिनरत्नकोश, पृ० १३४; यह पालीवाना से सन् १९२१ में प्रकाशित हुई है। २. वही, पृ० १३१ और ४४७.
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