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पौराणिक महाकाव्य नृप-रानी कनकसुन्दरी, ४. देवरथ-रत्नावली, ५. पूर्णचन्द्र-पुष्पसुन्दरी, ६. शूरसेन. मुक्तावली, ७. पद्मोत्तर-हरिवेग (विद्याधर राजा), ८. गिरिसुन्दर-रत्नसार (वैमातृक भाई ), ९. कनकध्वज-जयसुन्दर ( सहोदर), १०. कुसुमायुध-कुसुमकेतु (पिता-पुत्र ) और अन्त में पृथ्वीचन्द्र महाराज और गुणसागर श्रेष्ठिपुत्र हुए। दोनों के परिणाम इतने निर्मल थे कि वे दोनों गृहस्थावस्था में ही केवलज्ञानी हो गये और मुक्तिगामी हुए । पृथ्वीचन्द्र के प्रथम भव शंख-कलावती को लेकर कुछ स्वतन्त्र कथाग्रंथ भी बनाये गये हैं।
__ यहाँ पृथ्वीचन्द्र राजर्षि की कथा से सम्बद्ध कुछ रचनाओं का परिचय दिया जाता है।
पुहवीचंदचरिय-यह प्राकृत भाषा में ७५०० गाथाओं में निबद्ध विशाल ग्रंथ है' जो अनेक अवान्तर कथाओं से भरा हुआ है। इसकी रचना बृहद्गच्छीय सर्वदेवसूरि के प्रशिष्य एवं नेमिचन्द्र के शिष्य सत्याचार्य ने महावीर सं० १६३१ अर्थात् वि० सं० ११६१ में की थी। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं।
इस पर ११०० श्लोक-प्रमाण कनकचन्द्रसूरिकृत टिप्पण तथा रत्नप्रभसूरिकृत चरित्र-संकेत टिप्पण (५०० श्लोक-प्रमाण ) भी मिलते हैं।
१. पृथ्वीचन्द्रचरित—यह संस्कृत भाषा में ११ सर्गात्मक रचना है। इसका परिमाण २६५४ श्लोक-प्रमाण है। इसकी रचना खरतरगच्छ के जिनवर्धनसूरि के शिष्य जयसागरगणि ने पालनपुर में सं० १५०३ में की थी। इनकी अन्य कृति 'पर्वरत्नावली' है।
२. पृथ्वीचन्द्रचरित-यह काव्य संस्कृत के अनुष्टुप् छन्दों में निर्मित है। इसमें ११ सर्ग हैं और ग्रन्थान १८४६ श्लोक-प्रमाण है। इसमें सर्गों का नामांकन पृथ्वीचन्द्र और गुणसागर के ११ मनुष्यभवों के नाम से किया गया है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० २५५-२५६. २. वही, पृ० २५६. ३. यशोविजय जैन ग्रन्थमाला (सं० ४४), भावनगर, वि० सं० १९७६; जैन
साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ५९६ में इसे बिना देखे ही गद्य-पद्यमय
श्लेष-ग्रन्थ कहा गया है। ४. प्रशस्ति, पद्य १०.
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