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पौराणिक महाकाव्य
धन्यशालिभद्रकान्य--इस काव्य में ६ परिच्छेद हैं। ग्रन्थान १४६० तथा प्रशस्ति पद्य मिलाकर १४९० श्लोक-प्रमाण है। ग्रन्थान्त में विविध छन्दमय १५ पद्यों की प्रशस्ति दी गई है। ग्रन्थ को महाकाव्य कहा गया है क्योंकि इसमें अनेक रसों, अलंकारों एवं विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है तथा संक्षेप में नगरों, उपवनों आदि का वर्णन है । कथा का मूल उद्देश्य दानधर्म के माहात्म्य को सूचित करना है इसलिए यत्र-तत्र सुललित पदों में धार्मिक उपदेश भरे पड़े हैं। काव्य के बीच-बीच में पहेलियों और संवादों ने कथानक को बड़ा सजीव बना दिया है।
रचयिता एवं रचनाकाल-इसके प्रणेता जिनपतिसूरि के शिष्य पूर्णभद्रसूरि हैं जिन्होंने ज्येष्ठ शुक्ल १०, वि० सं० १२८५ में जैसलमेर में रहकर इसे पूर्ण किया था। इसमें उन्हें सर्वदेवसूरि की सहायता मिली थी। प्रशस्ति में कर्ता ने अपनी गुरुपरम्परा जिनेश्वरसूरि से प्रारंभ की है । ग्रन्थकार की अन्य रचनाएँ अतिमुक्तकचरित्र ( सं० १२८२ ) तथा कृतपुण्यचरित्र (सं० १३०५ ) हैं ।
शालिभद्रचरित- यह सात प्रक्रमों का एक लघुकाव्य' है जो एक आलंकारिक काव्य की सभी विशेषताओं से युक्त है। इसका आधार हेमचन्द्राचार्य के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के १०३ पर्व का ५७वाँ अध्याय है। इस काव्य का नाम 'दानधर्मकथा' भी है। इसे अनेकों सूक्तियों, नीति एवं व्यावहारिक कहावतों से सजाया गया है।
रचयिता एवं रचनाकाल-इसकी रचना धर्मकुमार ने सं० १३३४ में की है। धर्मकुमार नागेन्द्रकुल के आचार्य सोमप्रभ के शिष्य विबुधप्रभ के शिष्य थे। इसकी रचना में कनकप्रभ के शिष्य एवं अनेक ग्रन्थों के संशोधक आचार्य
१. जिनरत्नकोश, पृ० १८८; जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार, सूरत, वि० सं०
१९९१. २. प्रशस्ति, पद्य सं० ११.१२. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ३८२, इसको कथा का संक्षेप अंग्रेजी में विण्टरनिस्स की
हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २ के पृ० ५१८ में दिया गया है। यह यशोविजय ग्रन्थमाला, वाराणसी (१९१०) से प्रकाशित है। ब्लूमफील्ड ने अमेरिकन ओरियण्टल सोसाइटी की पत्रिका, भाग ४३, पृ० २५७ आदि पर विस्तृत परिचय दिया है।
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