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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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जम्बूस्वामी तपस्या कर सुधर्मास्वामी के बाद श्रमण संघ के नेता - गणधर बने । वे अन्तिम केवली थे और वीर नि० सं० ६४ में निर्वाणपद पाया ।
जम्बूचरिय - महाराष्ट्री प्राकृत में रचित यह काव्य १६ उद्देशों में विभक्त है । प्रथम दो उद्देशों में 'समराइव कहा' के समान कथाओं के अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा एवं संकीर्णकथा – ये चार भेद बतलाकर धर्मकथा को ही रचना का प्रतिपाद्य विषय बतलाया है और तीसरे उद्देश से कथा प्रारम्भ की गई है । चौथे और पाँचवें में जम्बूस्वामी के पूर्वभवों का वर्णन दिया गया है। छठे में जम्बू का जन्म, शिक्षा, यौवन आदि का वर्णन है। सातवें में उनके वैराग्य की ओर प्रवृत्ति, माता-पिता द्वारा संसार-प्रवृत्ति के लिए विवाह अगले उद्देशों में जम्बूस्वामी ने आठ पत्नियों तथा घर में घुसकर बैठे प्रभव नामक चोर तथा उसके साथियों को नाना आख्यानों, दृष्टान्तों, कथाओं आदि से वैराग्यवर्धक उपदेश सुनाये और अन्त में उन्होंने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्धि पाई । '
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इसमें काव्य-लेखक ने कथाक्रम को ऐसा व्यवस्थित किया है कि पाठक की जिज्ञासा और कुतूहल प्रारंभ से अन्त तक बने ही रहते हैं। इसमें वर्णनों की विविधता देखी जाती है । यह काव्य प्राकृत गद्य और पद्य के सुन्दर नमूने प्रस्तुत करता है । यहाँ धार्मिक कथा का आदर्श रूप दिया गया है । नायक को अपनी वीरता प्रकट करने का कहीं अवसर भी नहीं आया । यह कृति आदर्श रही है ।
परवर्ती कवियों का
रचयिता एवं रचनाकाल —- इसके रचयिता नाइलगच्छीय गुणपाल मुनि हैं जो वीरभद्रसूरि के प्रशिष्य एवं प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे। संभवतः कुवलयमाला के रचयिता उद्योतनसूरि के सिद्धान्तगुरु वीरभद्राचार्य और गुणपाल मुनि के दादागुरु वीरभद्रसूरि दोनों एक ही हों । ग्रन्थ की शैली पर हरिभद्र की समराइच्चकहा और उद्योतनसूरि की कुवलयमाला का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है 1 उक्त कथाग्रन्थों के समान ही यह भी गद्य-पद्य मिश्रित है ।
ग्रन्थकार और उक्त रचना के काल के संबंध में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है पर रचनाशैली आदि से अनुमान होता है कि इसे १०- ११वीं शताब्दी
१. सिंधी जैनशास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, १६५९; जिनरत्नकोश, पृ० १३०.
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