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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के प्रयोग के साथ मालिनी, उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा और शिखरिणी छन्दों का प्रयोग हुआ है। इस काव्य की भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है । क्लिष्ट शब्दों और समासान्त पदावली का प्रयोग कम ही हुआ है। भाषा प्रसंगानुकूल एवं भावानुवर्तिनी है। लोकोक्तियों और सूक्तियों का प्रयोग भी यत्र-तत्र पाया जाता है । इससे भाषा मधुर एवं सजीव हो गई है। __ पार्श्वनाथचरित का रचना परिमाण अनुष्टुप् मान से ६०७४ श्लोकप्रमाण है।
इस काव्य की कथा माणिक्यचन्द्रसूरि, सर्वानन्दसूरि आदि के पाश्वनाथचरित से मिलती-जुलती है किन्तु अवान्तर कथाओं की योजना और कथा के सर्गों में विभाजन की दृष्टि से यह काव्य अन्य पार्श्वनाथचरितों से नितान्त भिन्न है। इसमें कथा का विभाजन आठ सर्गों में किया गया है। प्रथम सर्ग में पार्श्वनाथ के प्रथम, द्वितीय और तृतीय भवों का, द्वितीय सर्ग में चतुर्थ, पंचम भव का, तृतीय सग में षष्ठ, सप्तम भव का और चतुर्थ सर्ग में अष्टम, नवम भव का वर्णन किया गया है। पंचम सर्ग में पार्श्वनाथ के च्यवन, जन्म, जन्माभिषेक, कौमार तथा विजययात्रा का वर्णन दिया गया है । षष्ठ सर्ग में उनके विवाह, दीक्षा, केवलज्ञान, समवशरण तथा देशना का वर्णन किया गया है। सप्तम सर्ग में जिनगणधर-देशना का और अष्टम सर्ग में पार्श्वनाथ के विहार एवं निर्वाण का वर्णन हुआ है। इस तरह यह काव्य विभाजन में पूर्व चरितों से पूर्णतया भिन्न है। अनेक अवान्तर कथाओं के समावेश के कारण इस काव्य का कथानक भी शिथिल है।
कविपरिचय तथा रचनाकाल-इम काव्य के अन्त में जो प्रशस्ति कवि ने दी है उससे ज्ञात होता है कि आचार्य कालिक के अन्वय में सण्डिल्ल नामक गच्छ के चन्द्रकुल में एक भावदेवसूरि नामक विद्वान् हुए थे। उनकी परम्परा में क्रमशः विजयसिंहसूरि, वीरसूरि और जिनदेवसूरि हुए। जिनदेवसूरि के पश्चात् पूर्वागत नामक्रम ( भावदेव, विजयसिंह, वीर तथा जिनदेव) से शिष्य परम्परा चलती गई जिनमें से एक जिनदेवसूरि के शिष्य इस पार्श्वनाथचरित के रचयिता भावदेवसूरि हुए। उन्होंने इस चरित की रचना सं० १४१२ में पाटन नगर में की थी। १. ग्रन्थः सर्वाग्रमानेन प्रत्येकं वर्णसंख्यया।
चतुःसप्तत्युपेतानि षट्सहस्राण्यनुष्टुभाम् ॥ प्रशस्ति, पद्य ३०. २. तेषां विनेय विनयी बहु भावदेवसूरिः प्रसन्नजिनदेवगुरुप्रसादाद् ।
श्रीपत्तनाख्यनगरे रविविश्ववर्षे (१४१२) पाचप्रभोश्चरितरत्नमिदं ततान ॥
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