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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
होते हुए भी पूर्ववर्ती पार्श्वनार्थचरितों से भिन्न है । इसके प्रथम तीन सर्गो में ही पार्श्वनाथ के सभी भवान्तरों का वर्णन समाप्त हो जाता है । आगे दान, शील, तप और भावना के माहात्म्यवर्णन में नये कथानकों की योजना है । अन्य बातों में भी कवि की नवीनता और मौलिकता स्पष्ट है ।
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इस काव्य की भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है । इसमें क्लिष्ट और अप्रचलित शब्दों का पूर्णतया अभाव है । समासयुक्त पदावली का प्रयोग बहुत कम किया गया है । भाषा के प्रवाह में अनुप्रासों की झंकृति प्रायः स्वतः एवं प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है । यत्र-तत्र मधुर सूक्तियों का भी प्रयोग किया गया है ।' अलंकारों का प्रयोग प्रचुर हुआ है पर उनके प्रयोग में स्वाभाविकता का ध्यान रखा गया है । कवि ने अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग किया है पर सर्गान्त में छन्दों में परिवर्तन कर इन्द्रवज्रा, शिखरिणी, मालिनी और उपजाति छन्दों का प्रयोग किया गया है ।
कवि परिचय और रचनाकाल -ग्रन्थ के अन्त में कवि ने जो प्रशस्ति दी है उससे ज्ञात होता है कि इसके कर्ता विनयचन्द्रसूरि चन्द्रगच्छीय थे । चन्द्रगच्छ में शीलगणसूरि नामक प्रसिद्ध विद्वान् हुए थे। उनके शिष्य मानतुंगसूरि और मानतुंग के शिष्य रविप्रभसूरि हुए जो बड़े विद्वान् थे । उनके शिष्यों में नरसिंहसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि और विनयचन्द्रसूरि हुए । विनयचन्द्रसूरि ने ही विनयांक पार्श्वनाथचरित की रचना की । इसके अतिरिक्त कवि ने मल्लिनाथचरित, मुनिसुव्रतस्वामिचरित, कल्पनिरुक्त, काव्यशिक्षा, कालिकाचार्यकथा ( प्राकृत ) तथा दीपा - वलीकल्प की रचना भी की है। उन्होंने गुर्जर भाषा में भी कई काव्यों की रचना की है जिनमें नेमिनाथचउपई और उपदेशमालाकथानकछप्पय प्राप्त हैं ।
पार्श्वनाथचरित के रचनाकाल के सम्बंध में निश्चित रूप से कोई सूचना नहीं है । पर विनयचन्द्रसूरि के सत्ताकाल पर उनकी अन्य रचनाओं से प्रकाश पड़ता है । उन्होंने सं० १२८६ में उदयप्रभसूरि द्वारा रचित धर्मविधिवृत्ति का संशोधन किया था तथा कल्पनिरुक्त सं० १३२५ में और दीपमालिकाकल्प सं० १३४५ में रचा था। इससे विनयचन्द्रसूरि का साहित्यिक काल सं० १. वही, सर्ग १.६५, ९१, १८६, ५२४; २.८२, १२६ आदि. २. धर्मविधिप्रशस्ति, श्लो० ११ १२, १७.
३. मुनिसुव्रतस्वामिचरित, प्रास्ताविक,
जैन ग्रन्थमाला, छाणी ).
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पृ०
४ ( प्रकाशक - लब्धिसूरीश्वर
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