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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसकी रचना उन्होंने भट्टाः श्रीभूषण के अनुरोध पर की थी और उसकी प्रथम प्रति श्रीपालवी ने तैयार की थी। । १३ वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक सर्वानन्दमूरि ( जालिहरगच्छ ) ने पार्श्वनाथचरित की रचना की थी। यह उल्लेख उनके प्रशिष्य देवसूरि ने अपनी रचना पउमपभचरियं में किया है । २. पार्श्वनाथचरित : - यह मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश की प्रथम टोका संकेत के लेखक माणिक्यचन्द्रसूरि की कृति है जा अबतक अप्रकाशित है । इसमें दस सर्ग हैं । रचना-परिमाण ६७७० श्लोक है। प्रत्येक सर्ग के अन्त की पुष्पिका में इसे महाकाब्य कहा गया है। महाकाव्योचित अधिकांश लक्षणों का समन्वय इसमें हुआ है। इसमें शांतरस की प्रधानता है पर अन्य रस भी गौण रूप से विद्यमान हैं। प्रत्येक सर्ग में एक छन्द तथा सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन किया गया है। इसमें सूर्योदय, सूर्यास्त, चद्रोदय, ऋतु, वन-वर्णन भी पाये जाते हैं। सर्गों के नाम वर्णित घटनाओं के आधार पर रखे गये हैं। महाकाव्य होते हुए भी इसमें प्रमुख महाकाव्यों के अनुरूप भाषा-शैली एवं प्रौढ़ कवित्वकला का अभाव है, इससे इसकी गणना सामान्य महाकाव्यों में मानना चाहिये। पार्श्वनाथचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। इसका प्रारंभ तोर्थकरों की स्तुति से होता है, इसमें भवान्तरों और अनेक अवान्तर कथाओं की योजना की गई हैतथा यह पार्श्वनाथ के जन्म, दीक्षा, केवल एवं निर्वाण-कल्याणकों का वर्णन अलौकिक घटनाओं से भरा है। इसका कथानक पूर्णतः परम्परासंमत है।
पौराणिक काव्य के अनुरूप इसकी रचना अनुष्टुप् छन्द में हुई है पर सर्गान्त में मालिनी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं सर्ग के मध्य में भी चार-पांच पद्य अन्य छन्दों के दिये गये हैं। इस काव्य में कवि की अभिरुच अलंकारों की ओर नहीं दीख पड़ती तथा भाषा के सहज प्रवाह और भावों का स्वाभाविक अभिव्यक्ति में विविध अलंकार स्वतः
१. जिनरत्नकोश, पृ० २४६. २. वही, पृ० ४४५. .३. ताडपत्रीय प्रति-शान्तिनाथ भण्डार, खम्भात, ग्रन्थ सं० २०७, जिनरत्न
कोश, पृ० २४४,
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