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पौराणिक महाकाव्य
ये श्रीपालदेव के प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण की टीका ) के कर्ता दयापाल मुनि के सतीर्थ या गुरुभाई थे। लगता है वादिराज इनकी एक तरह की पदवी या उपाधि थी, वास्तविक नाम कुछ और रहा होगा पर उपाधि के विशेष प्रचलन से वह नाम ही बन गया। श्रवणवेलगोला से प्राप्त मल्लिषेणप्रशस्ति में वादिराज की बड़ी ही प्रशंसा की गई है।।
वादिराज ने पार्श्वनाथचरित की रचना सिंहचक्रेश्वर या चौलुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेव की राजधानी कट्टगेरी में निवास करते हुए' शक सं० ९४७ की कार्तिक शुक्ल तृतीया को की थी। पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति के छठे पद्य से ऐसा मालूम होता है कि वह राजधानी लक्ष्मी का निवास थी और सरस्वती देवी (वाग्वधू) की जन्मभूमि थी। अपनी दूसरी कृति यशोधरचरित के तीसरे सर्ग के अन्तिम (८५ ३) पद्य में और चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में कवि ने चतुराई से जयसिंह का उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि यशोधरचरित्र की रचना भी जयसिंह के ही राज्य में हुई थी। दक्षिण के चालुक्य नरेश जयसिंहदेव की राजसभा में इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यातवादी गिने जाते थे। मल्लिषेणप्रशस्ति के अनुसार चालुक्यचक्रवर्ती के जयकटक में वादिराज ने जयलाभ की थी। जगदेकमल्लवादी उपाधि भी जयसिंह ने इन्हें प्रदान की थी और इनकी पूजा भी की थी-सिंहसमर्थ्य पीठविभवः ।।
वादिराज का युग जैन साहित्य के वैभव का युग था। उनके समय में सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, अभयनन्दि तथा चन्द्रप्रभचरित काव्य के रचयिता वीरनन्दि, कर्नाटकदेशीय कवि रन्न, अभिनवपम्प एवं नयसेन आदि हुए थे। गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के रचयिता ओडयदेव वादीभसिंह और उनके गुरु पुष्पसेन, गंगराज राचमल्ल के गुरु विजयभट्टारक तथा मल्लिषेणप्रशस्ति के रचयिता महाकवि मल्लिषेण और रूपसिद्धि के कर्ता दयापाल मुनि इनके समकालीन थे।
इस काव्य पर भट्टा० विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र ने पंजिका लिखी है। इसका उल्लेख पाण्डवपुराण की प्रशस्ति में भट्टा० शुभचन्द्र ने स्वयं किया है।
१. 'सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं'। २. 'व्यातन्वज्जयसिंहतां रणमुखे दोघं दधौ धारिणीम्' तथा 'रणमुख जयसिंहो
राज्यलक्ष्मी बभार'।
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