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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सर्वत्र विद्यमान है। अनुप्रास और यमक जैसे अलंकारों का प्रयोग इसमें बहुत हुआ है। अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त और अर्थान्तरन्यास आदि सादृश्यमूलक अलंकारों की योजना भी यत्रतत्र हुई है। इस तरह विविध
अलंकारों के प्रयोग से रचयिता ने अपने काव्य के कलापक्ष को समृद्ध किया है।
प्रस्तुत काव्य में अनुष्टुभ् और वसन्ततिलका केवल इन दो छन्दों का ही प्रयोग हुआ है। समस्त सर्गों में अनुष्टुभ छन्द का प्रयोग हुआ है और सर्गान्त में अन्तिम दो पद्यों में वसन्ततिलका का प्रयोग किया गया है। इस चरित का रचना-परिमाण ५४९४ श्लोक-प्रमाण है। यह बात स्वयं कवि ने प्रशस्ति में
कविपरिचय और रचनाकाल-काव्य के अन्त में दी गई प्रशस्ति में कवि की गुरु-परम्परा का परिचय दिया गया है। तदनुसार ग्रन्थकर्ता वर्धमानसूरि नागेन्द्रगच्छीय थे। नागेन्द्रगच्छ में वीरसूरि के शिष्य परमारवंशीय वधमानसूरि हुए। उनके पट्टपर क्रमशः श्री रामसूरि, चन्द्रदेवसूरि, अभयदेवसूरि, धनेश्वरसूरि
और विजयसिंहसूरि हुए। विजयसिंहसूरि के शिष्य ही प्रस्तुत काव्य के रचयिता वर्धमानसूरि हैं। उन्होंने अणहिल्लपुर में इस काव्य की रचना सं० १२९९ में की थी। विमलनाथचरित: __तेरहवें तीर्थंकर पर संस्कृत में चार रचनाएँ उपलब्ध हैं। उनमें पहली है पाँच सर्गों का गद्य में रचित सुन्दर चरितकाव्य । इसका नाम तो विमलनाथचरित है पर इसके प्रथम तीन सर्गों का नाम क्रमशः दानधर्माधिकार, शील-तपधर्माधिकार और भावाधिकार है, शेष दो में तीर्थकर विमलनाथ के गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान, देशना आदि का वर्णन है। पहले दानधर्माधिकार में विमलनाथ के पूर्वभव के जीव राजा पद्मसेन के वर्णन प्रसंग में, धर्म की श्रेष्ठता पर सुबुद्धि की कथा, कदाग्रह पर कुलपुत्रक की कथा, दानधर्म पर रत्नचूड़ की कथा १. वही, सर्ग १. १, ४४, २. ७६२, ७६३, २०७६; ३. ९, २०, ४३३,
४३४, ६५६. २. वही, प्रशस्ति, श्लोक २८-३१. ३. ततोऽसौ निधिनिध्यर्कसंख्ये (१२९९) विक्रमवत्सरे ।
आचार्यश्चरितं चक्रे वासुपूज्यविभोरिदम् ॥ ४. हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९१०; इस ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद
जैन भात्मानन्द सभा, भावनगर से सं० १९८५ में प्रकाशित हुआ है।
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