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पौराणिक महाकाव्य मुनिसुव्रतचरित: ___ विनय' शब्दाङ्कित इस काव्य में आठ सर्ग हैं।' इसके रचयिता विनयचन्द्रसूरि हैं। समस्त काव्य में धार्मिक रूढ़ियों और गतानुगतिकता का पूर्णरूप से पालन किया गया है। मुनिसुव्रतस्वामी के भवान्तरों का वर्णन है साथ ही अवान्तर
और प्रासंगिक कथाओं के कारण कथानक में शिथिलता-सी आ गई है। प्रथम सर्ग में ही तीन अवान्तर कथाओं-मेवाहन, संकाशश्रवि और अभ्यंकर चक्रवर्ती कथा की योजना की गई है। अन्य सर्गों में विविध कथाओं की योजना की गई है। काव्य में अनेक अलौकिक और अप्राकृत तत्त्वों का समावेश दीख पड़ता है।
वैसे मुनिसुव्रतचरित का कथानक लघु है पर अवान्तर कथाओं के समावेश के कारण इसका महाकाव्योचित विस्तार हो गया है। पर कथाओं के आधिक्य से कथानक में शैथिल्य आ गया है और उसके प्रवाह में अनेक स्थलों में बाधा-सी पड़ी है। यद्यपि इसमें अनेक पात्र हैं पर केवल मुनिसुव्रत के चरित्र का ही विकास हो सका है। शेष उसी की छाया में आते-जाते दिखाई पड़ते हैं। इस काव्य में कवि प्रकृति-चित्रण के प्रति उदास से दिखते हैं । उन्होंने कुछ ही स्थलों पर प्रकृति-चित्रण किया है। प्रकृति-चित्रण की भाँति सौन्दर्य-चित्रण भी बहुत कम किया गया है। पर इसमें जैनधर्म के नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन प्रमखता से हुआ है।
इस चरित में सरल भाषा का प्रयोग किया गया है। कहीं-कहीं समासप्रधान भाषा का उपयोग हुआ है । लेखक ने अपनी भाषा को विविध सूक्तियों और महावरों से सजाया है। जिससे भाषा में सजीवता और भावमयता आ गई है। तत्कालीन प्रचलित देशी भाषा के शब्दों को भी इस काव्य में ग्रहण कर लिया गया है जैसे कन्दुक के स्थान में गेन्दुक और शुण्डा के स्थान पर शूद्ध, अज के
१. लन्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, छाणी ( बड़ौदा ), वि० सं० २०१३; जिन
रत्नकोश, पृ० ३११. २. सर्ग १. २२३; १. २६४-२६५, ५. ५, ६. ७५, ६. १४३, १४७;
७. ४४१-४४३ प्रभृति । ३. सर्ग २. ५३४, ६. २५०; ७. ४००, ८. २८४, ८. ३३१;
९. ४ १३.
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