________________
पौराणिक महाकाव्य १. शान्तिनाथचरित: ___ यह मम्मटकृत काव्यप्रकाश के टीकाकार माणिक्यचन्द्रसूरि की दसरी रचना है। इसकी एक ताडपत्रीय प्रति मिलती है। इसमें आठ सर्ग हैं। इसका रचना. विस्तार ५५७४ श्लोक-प्रमाण है जो कवि ने स्वयं निर्दिष्ट किया है। इसका
आधार हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा माना जाता है। . इसमें वैसे महाकाव्य के प्रायः सभी बाह्यलक्षण समाविष्ट हैं पर भाषाशैथिल्य, सर्वांगीण जीवन के चित्र उपस्थित करने की अक्षमता एवं मार्मिक स्थलों की कमी इसे प्रमुख महाकाव्य मानने में बाधक हैं। सर्गों के नाम वर्णित घटनाओं के आधार पर रखे गये हैं। इसमें स्थान-स्थान पर जैनधर्म-संबंधी उपदेश हैं । सप्तम सर्ग तो जैनधर्म के सिद्धान्तों से ही परिपूर्ण है। काव्य वैराग्यमूलक और शान्तरस पर्यवसायी है। इसका कथानक शिथिल है और इसमें प्रबन्धरूढ़ियों का पालन हुआ है। मंगलाचरण परमब्रह्म की स्तुति से प्रारंभ होता है। चरित में अवान्तर कथाओं की भरमार है। छठे, सातवें और आठवें सग में विविध आख्यानों का समावेश है। कई स्थलों पर स्वमत-प्रशंसा और परमत-खण्डन किया गया है। इस काव्य में स्तोत्रों और माहात्म्य वर्णनों की प्रचुरता भी दिखाई देती है। छठे और आठवें सर्ग में तीर्थंकर शान्तिनाथ के स्तांत्र तथा कई तीर्थों के माहात्म्य का वर्णन है।
__ इस शान्तिनाथचरित का कथानक ठीक वही है जो मुनिभद्रसूरिकृत शान्तिनाथ महाकाव्य का है पर इसमें कथानक का विभाजन नवीन ढंग से किया गया है। इसमें प्रथम सर्ग में शान्तिनाथ के प्रथम, द्वितीय और तृतीय भव का वर्णन है, द्वितीय सर्ग में चतुर्थ और पंचम भव, तृतीय सर्ग में षष्ठ और सप्तम भव का, चतुर्थ सर्ग में अष्टम और नवम भव का तथा पंचम सग में दशम और एकादश भव का वर्णन है । षष्ठ सर्ग में शान्तिनाथ के जन्म, राज्याभिषेक, दीक्षा, केवलोत्पत्ति तथा देशना का वर्णन है। सप्तम सर्ग में देशना के अन्तर्गत द्वादशभाव तथा शील की महिमा का वर्णन है और अष्टम सर्ग में श्री शान्तिनाथ के निर्वाण का वर्णन है । कथानक-विभाजन की दृष्टि से ही नहीं अपितु नवीन अवान्तर
-
१. जिनरत्नकोश, पृ. १८०; हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर, प्रति ४६।८६५. २. चतुःसप्ततिसंयुक्ते पंचपंचाशता शतो (?)।
प्रत्यक्षरगणनया ग्रन्थमानं भवेदिह ॥ ग्रन्थाग्रं ५५७४ ॥ -प्रशस्ति, श्लोक २०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org