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पौराणिक महाकाव्य
चन्द्रप्रभचरित:
आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ पर अनेक संस्कृत काव्य उपलब्ध हैं। उनमें प्रथम आचार्य वीरनन्दि (११वीं शती का प्रारम्भ ) कृत चन्द्रप्रभ महाकाव्य है जिसका विस्तार से वर्णन महाकाव्यों के प्रसंग में किया गया है। दूसरी कृति असग कवि (सं० १०४५ के लगभग ) कृत का उल्लेख मिलता है। असग कवि कृत शान्तिनाथचरित और वर्द्धमानचरित भी उपलब्ध हैं।
तीसरी रचना ५३२५ श्लोक प्रमाण है। इसमें वज्रायुध नृप की कथा बड़े विस्तार से दी गई है जिसका उत्तर भाग नाटक शैली में लिखा गया है। इसके रचयिता नागेन्द्रगच्छीय विजयसिंहसूरि के शिष्य देवेन्द्र या देवचन्दसूरि हैं। रचना-संवत् १२६० दिया गया है ।
चतुर्थ रचना का वर्णन संक्षेप में नीचे दिया जाता है :
तेरह सर्गों का यह काव्य अब तक अप्रकाशित है। इसमें जैनों के अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ का चरित वर्णित है । सर्गों के नाम वर्ण्य वस्तु के आधार पर हैं जैसे प्रथम सर्ग दानवर्णन, द्वितीय शीलवर्णन और तृतीय तपोवर्णन। इसमें ‘चन्द्रप्रभ के भवान्तरों का वर्णन है ही, साथ ही विविध स्तोत्र और धर्मोपदेश समस्त काव्य में फैले हैं और कोई भी सर्ग अवान्तर कथाओं से खाली नहीं है । अवान्तर कथाओं में कलावान्-कलावती, धनदत्त-देवकी, चारित्रराज, समरकेतु आदि की कथाएँ प्रमुख हैं। मूलकथा और अवान्तर कथाएँ अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं से परिपूर्ण हैं।
यद्यपि यह काव्य तेरह सर्गों में है, किन्तु इसकी कथा प्रथम, षष्ठ और सप्तम इन तीन सर्गों में ही वर्तमान है। शेष सर्गों में विभिन्न देशनाएँ और अवान्तर कथाएँ हैं। द्वितीय सर्ग से पंचम सर्ग तक युगन्धर मुनि की देशनाएँ तथा अष्टम सर्ग से त्रयोदश तक चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की देशनाएँ हैं। विभिन्न अवान्तर कथाओं और धर्म-देशनाओं के कारण मूल कथानक अति शिथिल-सा लगता है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ११९. २. भात्मवल्लभ ग्रन्थ० सं० ९, मुनि चरणविजय द्वारा सम्पादित, अम्बाला,
१९३०; जिनरत्नकोश, पृ० ११९. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ११९; हेमचन्द्राचार्य जेन ज्ञानमन्दिर, पाटन, वस्ता
सं० ७८, ग्रन्थ सं० १८८९.
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