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(: १० )
जं थिरमज्झत्रसाणं तं झाणं, जं चलं तयं चित्तं ।
तं होज्ज भावणा वा श्रणुत्येहा वा श्रहव चिंता ॥२॥
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अर्थ - जो स्थिर मन है, वह 'ध्यान' है । जो चंचल मन है, वह 'चित्त' है । वह चित्त भावना रूप हो, अनुप्रेक्षा रूप हो, च्या चिंता स्वरूप हो ।
स्वयं समझने की शक्ति वाले नहीं होते । अत: उन्हें अज्ञात वस्तु बताने के लिए अन्य विशेषणों का उल्लेख करना जरूरी है। पूर्व महर्षि भी यही मानते हैं, अस्तु ।
ऐसे महावीर प्रभु को प्रणाम करके 'ध्यान' का प्रतिपादन करने वाला अध्ययन यहां अच्छा तरह ( प्रकर्षेण ) कहा जायगा । 'प्रणाम' याने प्रकर्ष से मन वचन काया के त्रिविध योग से नमस्कार । इसी तरह 'प्रकर्ष से कथन' अर्थात् यथास्थितता को रखते हुए कथन । सर्वज्ञ की दृष्टि से 'ध्यान' पदार्थ जैसे स्वरूप का है वैसे ही स्वरूप में कथन । किन्तु जरा भी परिवर्तन वाला नहीं ।
अब ध्यान का लक्षण बताया जाता है:
विवेचन :
ध्यान कहो, भावना कहो, ये सब मन की अवस्थाएं हैं।
यहां मन की दो अवस्थाएं बताईं हैं । १. ध्यान तथा २. चित्त । इसमें मन को एक ही विषय पर एकाग्रता का आलंबन करवाना, दूसरे या तीसरे विचार न करके एक में ही स्थिर करना, उसे 'ध्यान' कहते हैं । तब जो मन अस्थिर है अर्थात् एक विषय के विचार पर से दूसरे विषय के विचार में भटकता हो, उसे 'चित्त' कहते हैं । ध्यान के प्रकार आगे कहे जायेंगे ।.