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वेदना या उसके सिवाय भी मस्तक, पेट, आंत आदि के अनेक प्रकार के रोग, व्याधि, कष्ट में से उठती हुई वेदना या कटु अनुभव होने से उत्पन्न दुःखद संवेदन, वह 'कैसे मिटे, कैसे हटे', उसका क्षरण भर भी तन्मय चिंतन हो, तो वह वर्तमान कालीन आर्त्त ध्यान हुआ । साथ ही किसी भी तरह से वह हटी या मिटी तो भी भविष्य के बारे में 'वह कमी भी मुझे कैसे न हो ?' ऐसी दृढ चिंता हो यह भी आर्त ध्यान का दूसरा प्रकार ही है। इसी तरह भूतकाल के बारे में भी होता है। यदि पूर्व में अनुभव की हुई वेदना स्मरण में आने पर, 'अरे, वह तो बहुत ही दुःखदायी ! कितनी अधिक पीड़ा ! मिटी सो अच्छा हुआ', ऐसा चिंतन हो, अथवा 'दूसरे को पीड़ा हुई, मुझे न हुई यह अच्छा हुआ', ऐसा दृढ़ चिंतन चलता रहे तो वह भी वेदना का आर्त ध्यान हुआ ।
प्रश्न - कैसे जीवों को यह वेदना का आर्त्त ध्यान होता है ?
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उत्तर- जिसे भी वेदना के निवारण करने के लिए उसके प्रतीकार में या निवारक उपाय में चित्त व्याकुल हो । उदा० 'कौनसा वैद्य या डाक्टर ढूंढूं ? क्या दवा लू ? कैसा पथ्य पालन करूँ ? कितना आराम करूं ? दवा का समय हुआ पथ्य लेने का हुआ ?' इत्यादि विचारों की उथल-पुथल चलती हो, उसे वेदना वियोग का प्रणिधान कहेंगे । यह आर्त ध्यान है । इसी तरह भविष्य के बारे में
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कौन सी सावधानी रखूं, कौन सी भस्म, खाऊ ? इत्यादि विचार चलते ही रहें, चले तो वह वेदना असंयोग प्रणिधान रूप आर्त ध्यान है ।
टोनिक या दवा लू, पाक विचारों की उथल-पुथल
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प्रश्न - वेदना भी एक अनिष्ट ही है, तो इसके वियोग या असंयोग का ध्यान प्रथम प्रकार में ही आ जाता है। तो इसका दूसरा प्रकार कहने में क्या विशेषता हैं ?