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दोषों का जाग्रत होना आदि। तप संयम का अभ्यास होने से ये सब शान्त हो जाते हैं। (२) तप संयम से दुःखदायी अशाता, अन्तराय, मोहनीय आदि कर्मों का नाश होता है, यावत् सर्व कर्मों का क्षय होता है । अत: भविष्य में इससे आने वाले दु:ख अटकते हैं, रुकते हैं ।
_ नियाणा रहित' क्यों कहा ? परंतु यदि 'तप संयम से मुझे इन्द्रादि की ऋद्धि मिले', आदि नियाणा करे तो उसमें वर्तमान में लोभकषाय का दोष उठा, वह भी दुःख ही खड़ा हुआ तथा भविष्य में भी वह समृद्धि प्राप्त होने पर उसमें बुद्धि के बिगड़ने से नरकादि के दु:ख उत्पन्न करने वाले कर्मों का बंध होगा। इन वर्तमान तथा भावी दोनों दुःखद स्थितियों की ओर से आंखें मूंद लेना मात्र अज्ञान है, मोह है। इससे वहां आर्त ध्यान आकर खड़ा हो जाता है। पुन: रागरक्त बनकर इष्ट समृद्धि का नियाणा किया, यह तो स्पष्ट चौथे प्रकार का आर्त ध्यान ही है। इसीलिए कहा कि तप संयम नियाणा रहित हो तो ही धर्म ध्यान रूप है। ( अन्यथा नहीं।) - प्रश्न--यह ठीक है। परन्तु 'तप संयम से मुझे सब कर्मों का क्षय होकर मोक्ष प्राप्त हो' यह आशंसा भी एक प्रकार का नियाणा ही है न ? तो वह हो तो 'नियाणा रहित' कहां आया ?
उत्तर-- बात सच है। निश्चयनय से वह भी नियाणा ही है, अत: परमार्थ से वैसी आशंसा रखने का भी निषेध है। इसीलिए यह शास्त्र वचन मिलता है कि:- . .
मोक्षे भवे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तमः ।
प्रकृत्याभ्यासयोगेन यत उक्तो जिनागमे ।। अर्थ:--जिनागम में कहा है कि स्वस्वभाव के अभ्यास के