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( ६१ ) सत्तवह वेह बंधणडहणङ्कण मारणाइ पणिहाणं ।। अइ कोहग्गवत्थ निग्षिण मणसोऽहमविवागं ॥१६॥
अर्थः-अति क्रोध ग्रह से जकड़े हुए मन का लक्ष्य जीवों को पीटने, बिंधने, बांथने, जलाने, चिह्न करने, मार डालने इत्यादि पर जाता है, चिपकता है। (यह रौद्रध्यान है।) यह निर्दय हृदय वाले को होता है और अधम (नरकादि प्राप्ति के) फल वाला होता है। की बात नहीं है। हिंसा कुछ भी नहीं करता हो, मुख से झूठ कुछ भी नहीं बोलता हो, तब भी मन से करने व बोलने के क्र र उग्र अभिप्राय, चिन्तन या दिल का लगाव रौद्रध्यान है। जैसे आर्त में वैसे ही रोद्र में काया से करने का या वाणी से बोलने का कुछ नहीं होता, पर मात्र मन से उसका दृढ़ चिन्तन करता है, वह आर्त रौद्र ध्यान है। मन तो चौबीसों घण्टे कुछ न कुछ चिंतन करता ही है, फिर वह चितन आर्त्तध्यान या रौद्रध्यान न बन जाय,इसके लिए कितना ज्यादा ख्याल रखना पड़े ? ध्यान को कर्म बन्ध के साथ सीधा सम्बन्ध है। कर्म कैसे बांधे जावेंगे, उसका जजमेन्ट मन में तात्कालिक चलने वाले भाव या ध्यान के प्रकार पर पड़ता है। आर्त्तध्यान से तिर्यंचगति के कर्मों का बन्ध होता है और रौद्रध्यान से नरकगति के कर्मों का बन्ध होता है। वे भी तुरन्त ही बांधे जाते हैं; इसमें उधार नहीं। जिस समय जैसा ध्यान, उसी समय वैसे कर्मों का बन्ध हो जावेगा। इसीलिए जीवन का सबसे बड़ा काम यह, कि मन में होने वाले खराब ध्यान को रोक कर शुभ ध्यान को चालू रखने को बड़ी सावधानी रखना आवश्यक है।
१. हिंसानुबन्धी रौद्र ध्यान यहां अब पहला हिंसातुबन्धी रौद्र ध्यान समझाते हुए कहते हैं: