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उसे माता के गर्भ में उत्तरोत्तर पोषण देने वाले पदार्थ भी गंदे होते हैं; अत: वह स्वरूप से भी गंदा है। स्नानकर बाहर की अल्प समय की स्वच्छता का संतोष मान लें, इतना ही; बाकी उस समय भी अन्दर से तो सचमुच गंदा ही है।' इस तरह का देह का अशुचि भाव समय समय पर सोचने जैसा है, इससे शरीर का मोह, विभूषा का मोह. स्त्रो शरीर का राग ...इत्यादि मंद पड़ते जायें ।
(६ संसार भावना : 'इस संसार में जीव एक भव में माता होकर दूसरे भव में पुत्री बनती है, बहन हो जाती है या पत्नी भी बनती है। तब एक समय पुत्र होकर दूसरे भव में पिता, भाई या शत्रु भी बन जाता है। इस तरह किसे किस एक निश्चित रूप के कुटुम्बा के रूप में लिये फिरें ? ओर बेकार ममता करें? बेकार ममता करके पाप बढ़ाना ? दुर्ध्यान करना ? या देव गुरु धर्म भूलना ?' इस भावना का फल यह है कि स्वजन ममत्व छट जाता है और स्वजनों के खातिर देव गुरु व धर्म भूला नहीं जाय ।
(७ आश्रव भावना : जो विचारा मिथ्यादृष्टि है, सर्वज्ञ वचन की श्रद्धा रहित है, अविरत है, बिरति याने प्रतिज्ञाबद्ध हिंसादि पाप के त्याग वाला नहीं है, विषयासक्ति, निद्रा, विकथादि प्रमाद वाला है और जिसे कषाय तथा त्रिदण्ड याने मन वचन काया के अशुभ योगों में रुचि है ऐसे जीव को उनने प्रमाण में आश्रव और कर्म लगते हैं। अफसोस कि आश्रव लगने से इस उच्च मानव भव में वह कैसा सुन्दर संवर का मौका गुमाता है ? कर्म लगने के बाद अहो ! वह उपके कैसे दारुण विपाक को दीर्घकाल तक भोगता है। अत: मैं आश्रव को रोकने में प्रयत्नशील बनू । इसका फल आश्रव का डर तथा पाश्रव का त्याग है।
(८) संवर भावना : ‘मन वचन काया की जो वृत्ति कर्म के ग्रहण को रोकती है, वह संवर है। इससे चित्त की सुन्दर