Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 309
________________ ( २८४ ) सुक्काए लेसाए दो, ततियं पुण परमसुक्क लेसाए । थिरयाजियसेलेसं लेसाइयं परम सुक्कं ॥८९।। . अर्थ:-पहले दो ध्यान शुक्ल लेश्या में, तीसरा परम शुक्ल लेश्या में और स्थिरता गुण से मेरु को जीतने वाला चौथा शुक्ल ध्यान लेश्या रहित होता है। ये चारों 'अपाय-अशुभ-अनन्त-विपरिणमन' की अप्रेक्षा पहले दो शुक्ल ध्यान में ही होती है, पीछे के दो में नहीं। क्यों कि पहले दो शुक्ल ध्यान के वक्त मन होता है और उनमें ध्यान विचय होता है, इससे अनुप्रेक्षा याने चिंतन हो सकता है, पिछले दो ध्यान में तो केवलज्ञान होने से मन का व्यापार ही नहीं है, सिर्फ काययोग की निश्चलता है, इससे चिन्तन किस तरह से हो ? ये दो ध्यान तो शैलेशी प्राप्त करवा कर मोक्ष ही ला देते हैं तो फिर वहां अनुप्रेक्षा का मौका ही कहां रहा ? यह 'अनुप्रेक्षा' द्वार हुआ। चारों शुक्लध्यान में लेश्या कैसी ? अब 'लेश्या' द्वार कहते हैं:विवेचन : पहले दो शुक्लध्यान जीव शुक्ललेश्या में होता है, तब होते हैं। इससे नीचे की लेश्या हो वहां परमाणु आदि का एकाग्र चिन्तन करे, तो वह शुक्ल ध्यान रूप नहीं बन सकता। यह सूचित करता है कि ऊँचे ध्यान का उच्च लेश्या के साथ सम्बन्ध है। मानसिक लेश्या यदि किसी अशुभ रागादि वाली हो तो वह नीची लेश्या है, उसमें उच्च ध्यान नहीं हो सकता।

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