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अवहा संमोह विवेग विउसग्गा तस्स होति लिंगाई । लिंगिज्जइ जेहिं मुणी सुक्कज्झाणोवगय - चित्तो ॥१०॥ चालिज्जइ बीभेइ य धीरो न परीसहो वसग्गेहि । सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥९१।। देह विवित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे। देहोवहिवोस्सग्गं निस्संगो सव्वहा कुणई ।।९२॥
अर्थः अवध, असंमोह, विवेक, व्युत्सगं ये शुक्लध्यानी के लक्षण हैं, जिन से शुक्ल ध्यान मे चढ़े हुए चित्त वाले मुनि पहचाने जाते हैं। (१) परीसह उपसर्गों से ये धीर मुनि न चलायमान होते हैं, न भयभीत ही होते हैं। (२' न वे सूक्ष्म पदार्थों से मोहित होते या न देवमाया से विचलित होते हैं। (३) अपने आत्मा को देह से बिलकुल भिन्न तथा सर्व संयोगों से भिन्न देखते हैं और देह तथा उपधि को सर्वथा निस्संगरूप से त्याग करते हैं।
तीसरा शुक्ल ध्यान केवलज्ञानी को तेरहवें गुणस्थानक के अन्त के समय होता है । वहां परम याने उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है । अर्थात् तीसरा शुक्लध्यान परम शुक्ल लेश्या में कहा जाता है। यहां लेश्या मानसिक नहीं होती, क्यों कि मन का कोई व्यापार नहीं है, किन्तु योगान्तर्गत परिणामरूप लेश्या है।
(४) इसीलिए चौथा शुक्लध्यान लेश्या रहित होता है, क्योंकि यहां तो योगदशा में से आगे बढ़ कर सर्वथा योगनिरोध-अवस्था यानी 'शैलेशी' प्राप्त की होती है । इसमें की गई प्रात्म-प्रदेशों की स्थिरता मेरु की निष्प्रकंपता को भी जीतने वाली होती है, मेरु की स्थिरता से भी ज्यादा स्थिरता होती है । मेरु यों तो स्थिर; शाश्वत काल के लिए निष्प्रकंप है, परन्तु उसमें से अणुओं का गमनागमन चालू है;