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(२) असंमोह : शुक्ल ध्यान के समय 'पूर्व' गत सूक्ष्म पदार्थ पर एकाग्रता होती है. तो वहां चाहे जितना गहन पदार्थ हो, तब भी चित्त व्यामोह में नहीं पड़ता, मोहित नहीं होता कि उदा. 'ऐमा कैसे होगा?' आद। वे इतने ज्यादा प्रमादरहित और श्रद्धा सम्पन्न होते हैं। फिर अनेक प्रकार की देवमाया आवे, परीक्षा के लिए देवता ऐसे किसी अनुकूल या प्रतिकूल इन्द्रजाल की रचना करे तो भी वे उससे जरा भी विचलित नहीं होते। ___ (३) विवेक : शुक्लध्यानी अपनी आत्मा को देह से बिलकुल भिन्न देखता हैं। इसीलिए देह के मान अपमान आक्रोश वध आदि परिसहों को अपने पर के समझते ही नहीं; तो फिर उन्हें इनका मन दुख कहां से ? जिससे उसमें मन को ले जा.कर ध्यानभंग तो हो ही कहां से ? देह की तरह सर्व संयोगों को भी अपने से बिलकुल भिन्न ही देखते हैं, अतः इस हिसाब से भी मन ध्यान में से चलित नहीं होता । गजसुकुमाल मुनि के सिर पर सोमिल श्वसुर ने मिट्टी की पगड़ी बांध कर उसमें जलते हुए अंगारे रखे, पर महामुनि ने पहले से ही ऐसी गिनती रखी कि 'जलता है (शरीर या सिर) वह मेरा नहीं है और मेरा है वह (ज्ञान दर्शन चारित्र) जलता नहीं है।' इसी गिनती पर क्रोध से भरे हुए व अपने को जलाने का काम करने वाले सोमिल का संयोग भी अपने से बिलकुल भिन्न माना याने 'अपनी ज्ञानादि-सम्पन्न आत्मा को उससे कुछ भी लेना देना नहीं है। वे संयोग अपना कुछ भी बिगाड़ने वाले नहीं हैं । ऐसा मान लिया। जो ध्यान हआ उसके भंग होने का कोई अवसर या मौका ही न हुना, उसकी जगह भी न रही। इससे इस ध्यान पर स केवलज्ञान प्राप्त किया और वहीं बाकी के दो शुक्लध्यान तथा शैलेशी कर के सर्व कर्म खपा कर मोक्ष प्राप्त किया।
(8) व्युत्सर्ग: शुक्ल ध्यानी का परिचय कराने वाली