Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 325
________________ ( ३०० ) सीयायवाइएहिं य सारीरेहिं सुबहुप्पगारेहिं । झाणसुनिच्चलचित्तो न बहिज्जइ निजरापेही ।१०४। अर्थः-ध्यान से अच्छी तरह निश्चल (भावित) बने चित्त वाला शीत ताप आदि अनेकानेक प्रकार के शारीरिक दुःखों से खिंच नहीं जाता ( उनसे पीड़ित नहीं होता, चलित नहीं होता) क्यों कि वह कर्म निर्जरा की अपेक्षा वाला है । कषाय होने से ही ये ईर्यादि की वृत्तिये उठती हैं। ये कषाय ही नहीं तो यह वृत्ति नहीं। ये ईर्ष्यादि मानस दुःख हैं। मन इनसे पीड़ित होता है। प्रश्न- हर्ष से मानसिक पीड़ा क्या ? इसमें तो मन को आनंद मंगल लगता है। उत्तर-शराबी शराब पीता है और उसे नशा चढ़ता है, इसमें ही उसे आनन्द मंगल लगता है. वह मस्ती का अनुभव करता है । परन्तु सचमुच में वह आनन्द नहीं है, पर चित्त की अस्वस्थता है, पागलपन है, नशा है। इसी तरह लोभ की वस्तु बन जाने पर, मिल जाने पर मन को एक प्रकार का नशा चढ़ता है, हर्ष का अनुभव होता है। किन्तु सचमुच में तो वह प्रानन्द नहीं है, पर चित्त की अस्वस्थता है, पागलपन है। पर को अपना मानना, अशुचि को शुचि मानना, सुखाभास में सुख मानना यह पागलपन नहीं तो दूसरा क्या कहा जाय ? तात्पर्य, हर्ष आदि वृत्तियें भी मन की अस्वस्थता हैं, पीड़ा हैं। चित्त शुभ ध्यान में पिरो देने से कषायों की शांति रहती है : इससे ईर्ष्या विषाद शोक आदि को उठने की जमह ही नहीं रहती अतः शुभ ध्यान करने वाले को इन मानसिक दुःखों से पीड़ित होने

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