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विवेचन :
अथवा ध्यान अग्नि की तरह ही हवा भी काम करता है । आकाश में बादलो का समूह छा गया हो परन्तु यदि हवा की आंधी शुरु हो जाय तो बादलों को बिखेर देती है, नष्ट कर देती है और आकाश स्वच्छ बन जाता है, उसी तरह आत्मा पर चाहे जितने कर्म आवरण छा गये हों, परन्तु यदि ध्यान रूपी हत्रा शुरु हो जाय तो उन कर्म आवरणों को नष्ट कर देती है और आत्मा स्वच्छ बन जाती है ।
यहां कर्मों को बादल की उपमा इसलिए दी कि जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को ढक देते हैं, आवृत्त कर देते हैं, वैसे ही कर्म जीव क ज्ञानादि स्वभाव को आवृत्त कर देते हैं । कहा है: स्थितः शीतांशुवज्जीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच्च विज्ञानं तदावरणमभ्रवत् ॥
जीव आन्तर मल रहित भावशुद्ध स्वभाव वाला होने से चन्द्रमा के समान है और उसका ज्ञानगुण चन्द्रिका चन्द्रप्रकाश के समान है, तो उसे आच्छादित करने वाले कम बादलों जैसे हैं ।
( जीव के इस मौलिक स्वच्छ ज्ञान स्वभाव को बार बार अंतर में भावित किया जाय; 'मैं आत्मा शुद्धस्वरूप में तो निर्मल ज्ञानमात्र स्वभाव वाला हूँ । इसमें कोई भी राग द्वेष आदि मैल मिश्रित नहीं है । वस्तु मात्र को सिर्फ जानना देखना ही मेरा स्वच्छ ज्ञानस्वभाव है।' यह भावना बार बार करके अन्तर को भावित किया जाय, तो ऐसे भावित हुए अन्तर में रागादि का प्रभाव कम होता जाता है | )
यह तो ध्यान के अतीन्द्रिय और पारलौकिक फल की बात हुई । परन्तु इस लोक में अनुभव में आने लायक कोई अन्य ध्यानफल है ? वह बताते हैं ।