Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 329
________________ ( ३०४ ) है; और मन की तन्मयता स्थिरता ध्यान ही है। इस शास्त्र के प्रारम्भ में ही कहा है कि 'जं थिरमझवसाणं त झाणं ।' अर्थात् चित्त का स्थिर चिन्तन ही ध्यान है। सारांश कि सर्व साधुक्रिया प्रणिधान युक्त होने से ध्यानरूप बन जाती है। बाकी स्वाध्याय वाचनादि को तो ध्यान में आलम्बन कहे ही हैं; अतः स्वभावत: उसके पालम्बन से चित्तस्थय याने ध्यान आवेगा ही। इस तरह साधुक्रिया और स्वाध्याय के सतत प्रवाह में ध्यान का भी सतत प्रबाह बहता है। इसीलिए कहा कि ध्यान सर्वकाल सेवनीय है। इस पर से यह सूचित होता है कि साधुक्रिया को एक ओर छोड़कर ध्यान करने का विधान जैन शासन में नहीं है ( अनादि के चले आने वाले विविध कषाय-कुसंस्कारों को मिटाने में विविध क्रिया व आचार समर्थ हैं। इनको सेवे बिना ये कषाय कुसंस्कार किस तरह घिसकर नष्ट होंगे? फिर मन विविधता प्रिय होने से विविध क्रिया सूत्र और विविध स्वाध्याय में यदि स्थिर हो सके वैसा है तो ऐसा वह छोड़ कर मात्र एकरूप कोई 'ॐ' आदि के सतत ध्यान में किस तरह स्थिर रह सकता है ? - इति ध्यान शतक विवेचन इस तरह संयमप्रधान दृष्टि, कर्मसाहित्य-सूत्रधार, विशाल गच्छाधिपति परमाराध्यपाद स्व० गुरुदेवश्री सिद्धान्तमहोदधि आचार्य भगवन्त श्री विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज की कृपा से उनके चरणरज पन्यास भानुविजय ने श्री ध्यानशतक और उसकी टीका के आधार पर यह विवेचन ( गुजराती भाषा में ) लिखा है। ( यह उसका अनुवाद है।) इसमें प्रमादवश जिनाज्ञाविरुद्ध यदि कुछ लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कडं ।

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