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ध्यान यह अत्यन्त शुभ साधना है। ऐसे उत्तम पुरुष जिसे करें उसकी प्रशस्तता का तो पूछना ही क्या ?
इसीलिए ध्यान श्रद्ध ेय है, ज्ञेय है, ध्यातव्य है | श्रद्धेय है याने 'ध्यान सर्वं गुणों का स्थान और दृष्टादृष्ट सुख का साधन है, इस बात में कोई मीनमेष फर्क नहीं ।' ऐसी भावना से श्रद्धा रुचि आस्था आदर करने योग्य हैं। इतना ही नहीं, ध्यान का स्वरूप जानने समझने जैसा है, तथा क्रिया से अमल में उतार ने जैसा याने चिंतन मे आचरण करने योग्य है ।
ऐसा करने से सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना होती है । इस श्रद्धा व ज्ञान पूर्वक ध्यान का आसेवन भी एकादो बार नहीं, किन्तु नित्य सर्वकाल करना चाहिये । इतनी ऊंची वस्तु को किस लिए क्षण भर भी छोड़ना ? इसकी सतत ही आराधना करनी चाहिये ।
प्रश्न- यों तो सर्व काल ध्यान की ही आराधना करते रहने से संयम - जीवन की अन्य सब क्रियाएं करने का अवकाश ही नहीं रहेगा ! सब क्रियाएं ही उड़ जायेंगी ।
उत्तर - नहीं; क्रियाओं का लोप नहीं होगा; क्यों कि क्रिया का आसेवन वस्तुतः ध्यान रूप है । अतः क्रियाएं छोड़ कर ध्यान की बात ही नहीं है । क्रियाएं की जाये, वही ध्यान रूप हो जाती हैं। क्यों कि क्रिया में मन की एकाग्रता ध्यान ही है । साधु की कोई क्रिया ऐसी नहीं होती कि जिसमें ध्यान याने चित्त की एकाग्रता न होती हो ।
इसका कारण यह है कि प्रत्येक साधना प्रणिधान युक्त ही करने की है । और 'प्रणिधान' की 'विशुद्ध भावना सारं तदर्थापित मानसम् । यथाशक्ति क्रियालिंगं प्रणिधानं जगौ मुनिः ।' व्याख्या अनुसार ' तदर्थापित मानसम् ' याने उस सूत्रार्थं अथवा क्रिया के विषय में मन को अर्पित करना, उसमें मन को तन्मय बनाना होता