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का नहीं होता और इसी जीवन में प्रत्यक्ष मानसिक पीड़ा से बचने का लाभ मिलता है।
__ध्यान से शारीरिक दुःख में पीड़ा नहीं। अब शारीरिक पीड़ा से बचने का प्रत्यक्ष लाभ बताते हैं:
ध्यान की धारा से जिसने चित्त को भावित कर दिया है ऐसा व्यक्ति ऐसी आत्म दृष्टि वाला बना हुआ होता है कि उमे ऋतु को सर्दी गर्मी या भूख, तृषा या आक्रोश प्रहार आदि शारीरिक दुःख आने पर भी वह दुखों को चिन्ता या उनके संताप में बह नहीं ज ता, उसे उनकी कुछ भी पीड़ा नहीं लगती । (हो सकती है, पर होने पर भी नहीं लगती।) अतः वह अपने ध्यान कार्य में इतना निश्चल रहता है कि उसमे से लेश मात्र भी चलित होने की बात नहीं होती। दुख की वेदना तो होती है, पर उससे अल्प भी अरति या उद्वेग नहीं होता कि जिससे वह ध्यान में से चलित हो जाय ।
शारीरिक दुःखों से पीडित नहीं होने का कारण यह है कि वह आत्मा केवल कर्मक्षयार्थी है, उसे निजरा की अपेक्षा है, अभिलाषा है । उसने ध्यानादि साधना निर्जरा के लिए तो हाथ में ली है, तो फिर निर्जरा करवाने वाली शारीरिक आपत्ति प्रावे उसमें तो उसका मन खूश होगा, उसके मनको पीड़ा किस तरह से होगी? शारीरिक दु:ख तो कर्म रूपो फोड़े पर ऑपरेशन के चाकू का काम करता है, इससे कर्म रूपी फोड़ा मिट जाने का उसे दिखता है, तो उसे जरा भी उद्वेग क्यों होगा ? ध्यान बराबर करके चित्त को उससे भावित याने रंगा हुआ करने में प्रत्यक्ष रूप से यह महान
इस तरह फल द्वार का वर्णन हुआ।
श्रद्धा-ज्ञान-क्रिया से नित्य सेव्य ध्यान अब अन्तिम गाथा से उपसंहार करते हैं: