Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

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Page 321
________________ ( २९६ ) जह रोगासयसमणं विसोसण विरेयणो सह विहीहि । तह कम्मामयसमणं झाणाणसणाइ जोगेहिं । १००॥ जह चिरसंचियनिंधणमनलो पवन सहिओ दुयं दहइ । तह कम्मेंधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ ॥१०१॥ अर्थ:-जिप तरह रोग के असल कारण का निवारण लंघन, विरेचन तथा औषध के प्रकारों स होता है वैसे ही कर्मर ग का शमन-निवारण ध्यान अनशन अदि योगों से होता है। अत- जैसे हवा सहित अग्नि दीर्घकाल के भी एकत्रित किये हए ईंधन को शीघ्र जलाकर भस्म कर देता है. वैसे ध्यान रूपी अग्नि भी क्षण भर में ही अपरिमित कर्म ईंधन को जला देता है । विवेचन : बुखार आदि व्याधि आने पर वैद्य पहले असली निदान ढूंढते हैं, फिर वे मूल दोष को हटाने के लिए याने उखाड डालने हेतु दरदी को लघन करवाकर दोष को पक्व करते हैं, फिर विरेचन याने जुलाब दे कर उसको निकाल देते हैं और बाद में दूसरी औषधियें दे कर रोगों का बिलकुल निवारण करके आरोग्य प्राप्त करवाते हैं। इस तरह आत्मा पर बरसती हुई अनेकविध पोड़ाओं के मूल (जड़) में कर्म रोग है; उसका शमन निवारण ध्यान और अनशन आदि से होता है। यहां 'आदि' शब्द से ध्यान वृद्धि करने वाले दूसरे भी उनोदरिका, द्रव्य संकोच, आदि तप के प्रकार समझ लेना चाहिये । इन सबसे ध्यान वृद्धि होने से कर्म रोग का शमन होता है। ध्यान : कर्मेन्धन दाहक दावानल छट्ठा ईंधन अग्नि का दृष्टान्त है।

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