Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ ( २९५ ) विवेचन : मन वचन काया के योग आत्मप्रदेशों को कंपनशील रखता है, इससे आत्मा पर कर्म चिपकते है। आत्मा यदि स्थिर हो जाय, जैसे कि १४वें गुणस्थानक पर, तो फिर एक भी कर्मागु चिपक नहीं सकता । परन्तु इस स्थिरता के लिए योगों को रोक देना चाहिये । यह योगनिग्रह योगों के तपन, शोषण व भेद से होता है। ध्यान इसके लिए अनन्य साधन है। ध्यान में एकाग्रता होने से योग अवश्य गरम हा कर तपते हैं, सूखते हैं और भेदे जाते हैं । आग्न की गरमी से पानी तप कर हलका सूखने व उड़ने जैसा होता है; उसी तरह जमे हुए योग याने मन वचन काया की प्रवृत्तिशीलता ध्यान के ताप से तप्त हो कर हलको बन कर ढालो हो कर सूखतो जातो है और अन्त में भेदन हो कर उड़ जाती है । यह सूचित करता है कि अनन्तानन्त काल से चली आती हुई यह मन वचन काया की दौड़ धूप ढोली करनी हो, कम करना हो, तो ध्यान का खूब सेवन करना चाहिये, तभी आत्मा को शान्ति मिलेगी, स्थिरता प्राप्त होगी। जिस तरह ध्यान से योगों पर यह प्रभाव पड़ता है, उसी तरह ध्यान से कर्मों का भी तपन, शोषण भेदन अवश्य होता है । ध्यान आत्मा का उज्ज्वल स्थिर अध्यवसाय है, उसकी कर्मों को तपाकर, सुखाकर तोड़ डालने को तीव्र ताकत है। ध्यान बिना यों ही ये कर्म खिसकते नहीं हैं। ध्यान कर्म रोग की चिकित्सा ध्यान से कर्मनाश होता है उसमें पांचवां रोग व दवा का दृष्टान्त देते हैं -

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330