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नहीं कहने पडेगे, यही लाघव । इस गिनती से पहले धर्मध्यान का फल कहते हैं। विवेचन :
ध्यान में प्रधान धर्मध्यान के फल में (१) विपुल शुभाश्रव. (२) संवर, (३) निजरा और (४) दिव्यसुख निष्पन्न होते हैं । इन फलों की उत्पत्ति स्वाभाविक है। शुभाश्रव याने पुण्य का बंध । 'जं जं समयं जीवो...' के अनुसार धर्मध्यान शुभ भाव होने से इससे शुभकर्म 'पुण्य' का बन्ध हो, यह स्वाभाविक है । साथ ही अशुभ भाव के अभाव में संवर याने अशुभ कर्म का निरोध या रुकावट होती है, यह भी स्वाभाविक है। फिर धर्मध्यान से कर्म की 'निर्जरा' याने क्षय होना भी स्वाभाविक है; क्यों कि वह आभ्यन्तर तप है और तप यह निर्जरा का कारण है। उसी तरह धर्मध्यान से बांधे हुए पुण्य कर्म से दैवी सुख मिलें वह भी स्वाभाविक है ।
यह शुभ पुण्य आदि 'विपुल' याने विस्तृत रूप से उत्पन्न होता है याने दीर्घ कालस्थिति और विशुद्धि वाले पैदा होते हैं। पुण्य बंध भी वैसा ही होता है और भी विपुल होता है तथा निर्जरा भी विस्तृत होती है। कर्मों की दीर्घ स्थिति का क्षय होता है तथा दैवी सुख भी दीर्घ काल के तथा विशुद्धी वाले याने संक्लेश रहित उत्पन्न होते हैं।
फिर धर्म ध्यान के ये फल शुभ अनुबन्ध वाले होते हैं अर्थात् परम्परा चलाने वाले होते हैं। इससे पून: अच्छे कुल में जन्म मिलता है, पुनः 'बोधिलाभ', जैन धर्म की प्राप्ति होती है और असक्लिष्ट भोग मिलते हैं कि जिसमें जीव कमलपत्र की तरह निर्लेप रहता है, प्रवज्या मिलती है और परम्परा से केवलज्ञान तथा मोक्ष तक पहुंच सकते हैं। धर्मध्यान शुभानुबन्धी होने से ऐसी शुभ