Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 311
________________ (२८६ । लेकिन सर्वथा योगनिरोध किये गये आत्मा के प्रदेशों में लेश मात्र भी हल चल नहीं होती। यहां योग नहीं है अतः योगान्तर्गत पुद्गलपरिणाम रूप लेश्या भी नहीं होती। अतः यहाँ लेश्या रहित अलेशी अवस्था है । इसमें 'व्युपरत क्रिया अप्रतिपाती' नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । यह लेश्या द्वार हुआ। शुक्ल ध्यान के ४ लिंग लिंग द्वार का विवरण करने की इच्छा से लिंगों के नाम, प्रमाण, स्वरूप व गुण की भावना करने के लिए कहते हैं अर्थात् शुक्ल ध्यानी के लिंग' कौन कौन से हैं ? प्रत्येक कितने प्रमाण में या कितने ऊंची कक्षा वाले तथा लिंगों का स्वरूप कैसा कैसा होता है और उनके ४ गुण क्या है, प्रभाव क्या है ? आदि बताते हैं। विवेचन : शुक्ल ध्यान में चित्त लगा हो ऐसे मूनि को पहचान ने के लिए ४ लिंग होते हैं : अवध, असंमोह, विवेक तथा व्युत्सर्ग । 'अवध' याने अचलता, 'असंमोह' याने मोहित न होना या व्यामोह में न पड़ना, 'विवेक' याने पृथकता का भान तथा 'व्युत्सर्ग' याने त्याग। किसी को शुक्ल ध्यान होने का इन चार लिंगों से पता चलता है। चारों का स्वरूप निम्न प्रकार से है: (१) अवध : धीर याने बुद्धिमान या स्थिर शुक्ल ध्यानी मुनि चाहे जैसे क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, आदि परिसहों से या किसी देवादि की तरफ से मरणान्त उपसर्ग या उपद्रव आने पर जरा भी चलित या विचलित नहीं होते, ध्यान भंग नहीं करते, डरते नहीं या भयभीत नहीं होते। इतनी अधिक निडरता तथा अडिगता शुक्ल ध्यान के समय होती है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330