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विवेचन :
शुक्लध्यानी को ध्यान बन्द होने पर (१) आश्रव द्वार के अनर्थ, (२) संसार-स्वभाव (३) भवों की अनन्तता, और (४) वस्तु परिवर्तन, ये चार अनुप्रेक्षा होती हैं। उन पर वे चिन्तन करते हैं । इसमें ।
(') आश्रवद्वार के अनर्थ में मिथ्यात्व, अविरति आदि आश्रव द्वार अर्थात् कर्मबन्ध के हेतु कौन से हैं, उनके सेवन के फलस्वरूप यहां और परलोक में कैसे कसे दुःख आते हैं, कैसे अनर्थ उत्पन्न होते हैं ?...का चिन्तन करे।
(२) संसार के अशुभ स्वभाव में चिंतन करे कि धिक्कार है संसार के स्वभाव को कि (i) वह जीव के पास उसके अपने ही अहित की वस्तु का आचरण करवाता है ! (ii। फिर इसमें सुख अल्प और वह भी आभास मात्र है, तब दुःख अनन्त ! नरक निगोदादि में दुःख का पार नहीं है ! (iii) इसमें सम्बन्ध विचित्र होते हैं; पिता पुत्र होता है, माता पत्नी बनती है, मित्र शत्रु होता है.... इत्यादि । (iv) इसमें सर्व संयोग नाशवन्त हैं। अनुत्तरवासी देव जैसे को भी वहां से भ्रष्ट हो कर नीचे उतरना पड़ता है ।... इत्यादि संसार के अशुभ स्वभाव का चिन्तन करे ।
(३) भव की अनन्त परम्परा का विचार करे कि जीव यदि तीव राग द्वेष काम क्रोधादि में पड़ा तो नरकादि गतियो में अनन्त जन्म मरण कैसे करने पड़ते हैं। ___(४) वस्तु के परिवर्तन (विपरिणमन) याने जड़ चेतन पदार्थों की अस्थिरता का चिन्तन करे कि 'सर्व स्थान अशाश्वत हैं, सर्व द्रव्य परिणामी हैं, परिवर्तनशील हैं, शाश्वत गिने जाने वाले बडे मेरु जेसे में भी अणु गमनागमनशील हैं तो काया के विपरिणमन का तो पूछना ही क्या ?'
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