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आसवदाराए तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताण तणन्तं वत्थूणं विपरिणा च ॥८॥
अर्थः-आश्रवद्वारों ( मिथ्यात्वादि ) के अनर्थ, ससार के अशुभ स्वभाव, भवों की अनन्त धारा और (जड़-चेतन) वस्तुओं का परिवर्तन स्वभाव अशाश्वतता (नामक चार अनुप्रेक्षा हैं ।) । मात्र एकाग्र चिन्तन करके नहीं रह गये किन्तु उससे अपने आत्मा को 'सुभावित' याने अच्छी तरह से भावित किया है, चिन्तन के रंग से खूब रंग दिया है। इससे एकाग्र ध्यान पूरा हुआ तो तुरन्त अनुप्रेक्षारूप चिन्तन शुरू हो जाता है। सुभावितता के कारण मन आहट्ट दोहट्ट विचारों में नहीं जाता, परन्तु अब कहे जाने वाले आश्रव द्वार आदि चारों में से किसी एक के बारे में चिन्तन अनु. प्रेक्षा प्रारम्भ हो जाती है। (पहले धर्मध्यान के बाद की अनुप्रेक्षा के बारे में भी यही कहा था कि धर्मध्यान से सुभावित होने के कारण ध्यान से विराम पा कर अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षा में से किसी भी अनुप्रेक्षा में चढे । यह सूचित करता है कि जिनशासन में ध्यान केवल एकाग्र चिन्तन रूप ही नहीं, किन्तु साथ साथ आत्मा को भावित करने वाला होता है और इस तरह भावित होने का फल यह होता है कि ध्यान से रुक गये तो वह अनुप्रेक्षा चालू हो जाती है। वह करने से पुनः एकाग्रता हो कर ध्यान शुरू हो जाता है। इस तरह अन्तर के साथ ध्यान-सन्तति ध्यान-धारा चलती है । तात्पर्य कि ध्यान जीव को भावित करने वाला चाहिये और उसके रुकने पर अनुप्रेक्षा चालू होनी चाहिये ।)
शुक्ल ध्यान की ४ अनुप्रेक्षा . यहां शुक्लध्यान के विराम में आने वाली ४ अनुप्रेक्षा इस प्रकार से हैं: