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तो हमें उस प्रकार से मानना चाहिये। वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन करने के लिए आगम और तर्क दोनों जरुरी हैं। अत: सर्वज्ञागम का कहा हआ मानों तभी अतीन्द्रिय पदार्थ बराबर समझे हुए गिने जायेंगे।
इससे यह सिद्ध होता है कि भवस्थ सयोगी या अयोगी केवलज्ञानी को यद्यपि मन नहीं है, तो भो उनको ज्ञानदर्शनोपयोग है. इससे उनकी यह सूक्ष्म किया तथा व्युपरत क्रिया ये दोनों अवस्था ध्यानस्वरूप हैं।
___ यहां 'कम्मनिज्जरण हे उतो वा वि' कहा है, उसमें 'वा वि' याने चाऽपि' में 'च' तथा 'अपि' शब्द आये वहां 'च' शब्द से पूर्व के हेतु पर अनुपपत्ति याने प्रश्न की सम्भावना सूचित की और अपि शब्द से प्रस्तुत हेतु से समाधान सूचित किया। उदा० पहला हेतु 'पूर्वपयोग' बताया। उस पर प्रश्न खड़ा होता है कि 'जीव का ज्ञानोपयोग दण्ड रहित चक्र भ्रमण जैसा अल्पजीवी नहीं है वह तो वह तो मोक्ष होने के बाद भी कायम रहता है। तो क्या मोक्ष में भी ध्यान होने का कहोगे ?' इस प्रश्न का समाधान दूसरे 'कर्म निज्जरण हेतु' से मिलता है। पूर्व प्रयोग उपरान्त कर्म निर्जरा क्रिया करने का कार्य मोक्ष में नहीं होता और यहां सूक्ष्म-व्युपरत क्रिया से होता है, अतः इसे ही ध्यान कहा जावेगा, पर मोक्ष के ज्ञानोपयोग को नहीं।
यहां इस बात पर भी यह प्रश्न होगा कि कर्म निर्जरा तो सूक्ष्म क्रिया के पहले भी चालू है, तो क्या समग्र १३वें गुणस्थानक को ध्यान अवस्था कहोगे ?' तो इसके समाधान के लिए तीसरा हेतु 'शब्दार्थ बहुत्व' रखा। इससे सूचित किया कि 'ध्यै' शब्द का 'एकाग्र चिन्तन', 'योगनिरोध' और 'अयोगित्व' आदि ही होने से योगनिरोध ध्यान बनता है, पर योगनिरोध के पूर्व की अवस्था