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दण्ड के बिना भी चक्र भ्रमण चालू रहता है। इसी तरह मनोयोग आदि का निरोध होने पर भी आत्मा का ज्ञानोपयोग चालू हैं और भावमन है इसलिए वह ध्यान रू । है ।
प्रश्न- यों तो मोक्ष जाने के बाद में भी केवलज्ञ न का तो उपयोग होता है तो क्या वह ध्यानरूप गिना जावेगा?
उत्तर नहीं ध्यान तो कर्मक्षय करने वाला एक कारण है । मोक्ष में यह कर्मक्षय रूप कार्य करना शेष नहीं रहता, इससे वहां कारण भी नहीं होता, जब कि १४वें गुणस्थानक में तो अभा कर्म बाकी है, उनका क्षय करने वाली जोवोपयोग-अवस्था को कारणस्वरूप ध्यान रूप कह सकते हैं।
(२) कर्म निर्जराका कारण होने से : भवस्थ केवली की सूक्ष्म क्रिया व व्युच्छिन्न क्रिया की अवस्था को ध्यान कहते हैं। इसका दृष्टान्त क्षपक-श्रणी है। जैसे क्षपक-श्रेणी में घाती कर्मों का क्षय करने वाला पृथक्त्व-वितर्क सविचार आदि ध्यान में, वैसे ही यहां अघाती कर्म का क्षय करने वालो उक्त दोनों अवस्था को ध्यान रूप कहा जा सकता है !
(३) शब्द के कई अर्थ होने से : एक ही शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं. इसलिए यहां ध्यान' शब्द का अर्थ उपयोग करने का विरोध नहीं है। उदा० 'हरि' शब्द के इन्द्र,बन्दर... आदि अनेक अर्थ होते हैं। इसी तरह (१) 'ध्यै चिन्तायां' (२) 'ध्ये कायनिरोवे' ३) 'ध्य अयोगित्वे' आदि अनेक धात्वर्थ से 'ध्यै' पर से बने ध्यान शब्द के स्थिर चिन्तन, कायनिरोध, अयोगी अवस्था इत्यादि अर्थ हो सकते हैं। इससे सूक्ष्म क्रिया-व्युपरत-क्रिया को अवस्था को ध्यान कह सकते हैं।
(8) जिनचन्द्र का आगम वचन होने से : इससे भी यह अवस्था ध्यान कहलाती है। 'जिन' याने वीतराग