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विवेचन :
प्रश्न- ठीक है, तीसरे शुक्ल ध्यान के समय सूक्ष्म काययोग होने से 'कायनिश्चलता'स्वरूप ध्यान होगा, परन्तु चौथे शुक्ल ध्यान के समय तो सर्व योगों का बिलकुल निरोध याने अयोगी अवस्था है, वहां काया को स्थिर करने का भी कार्य नहीं है, तो फिर ऐसी अवस्था में ध्यानरूपता किस तरह ? ध्यान शब्द का अर्थ यहां कैसे घटता है ? ( घटित होता है ? ) यदि निरुद्ध काययोग है, ऐसा कहते हो तो अन्य भी निरुद्ध योगों के होने की आपत्ति उपस्थित होगी।
उत्तर- अनुमान प्रयोग से इसमें ध्यानरूपता सिद्ध होती है। अनुमान में पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त चाहिये, तो यहां चार हेतुओं से अनुमान प्रयोग इस तरह होता है:___'भवस्थ केवली की सूक्ष्म क्रिया और फिर बाद की व्युपरत क्रिया ये दोनों ध्यानस्वरूप हैं।' क्यों कि जीवोपयोग होने के साथ (१) पूर्व प्रयोग होने से, (२) कर्मनिजग का हेतु होने से, (३) शब्द के अनेक अर्थ होने से, तथा (४) जिनचन्द्र का आगम-कथन होने से इसमें 'दो अवस्था' पक्ष हैं 'ध्यानरूपता' साध्य है और अन्य ४ हेतु हैं।
स्पष्टता : काययोग का निरोध करने वाले सयोगी केवली को या शैलेशी वाले अयोगी केवली को अलबत्ता चित्त याने मनोयोग नहीं है, द्रव्य मन नहीं है तब भी उन्हें क्रमशः जो सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती तथा व्युपरत क्रिया अप्रतिपाती अवस्था है वह निम्न कारणों से ध्यान कहलाती है:
(१) पूर्व प्रयोग होने से : इसका दृष्टान्त कुम्हार के चक्र का भ्रमण है। जिस तरह से चक्र घुमाने वाले दण्ड की क्रिया बन्द होने के बाद भी दण्ड के पूर्व प्रयोग के कारण बाद में