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जह छउमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो । तह केवल काओ सुनिच्चलो भण्ण झाणं ॥ ८४ ॥
अर्थ :- जिस तरह से छद्मस्थ का मन सुस्थिर हो उसे ध्यान कहते हैं, वैसे केवलज्ञानी की काया का सुस्थिर होना ध्यान कहलाता है ।
होता है। यहां 'विचार' याने संक्रमण वाला । योग से अर्थ में संक्रमण नहीं किंतु यदि योगान्तर मे संक्रमण हो तो अनेक योग होते हैं अन्यथा एक ही योग होता है । अतः यहां एक अथवा अनेक योगों का सम्भव है । दूसरा 'एकत्व वितर्क अविच र'ध्यान संक्रमण रहित होने से वह मात्र किसी भी एक ही योग में होता है । जिस मनोयोग या वचनयोग या काययोग में लोनता आ गई उसी योग में यह दूसरे प्रकार का ध्यान होता है । परन्तु तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती' ध्यान केवल सूक्ष्म काययोग में ही होता है, क्यों कि वह ध्यान अन्य योगों के निरुद्ध हो जाने के बाद ह आता है। जबकि चौथा 'व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती' ध्यान तो अयोग अवस्था में ही होता है, क्योंकि समस्त यागों का सर्वथा निरोध हो जाने के बाद ही यह आता है । अतः यह ध्यान अयोग केवली को शैलेशी बनने पर होता है ।
मन बिना ध्यान कैसे होता है ?
अब ध्यान का विशेष अर्थ बताते हैं ।
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विवेचन :
प्रश्न - केवलज्ञानी को होने वाले शुक्ल ध्यान के बाद के दो प्रकारों के समय तो मनोयोग ही नहीं है अर्थात् मन ही नहीं है, क्यों कि केवली अमनस्क होते हैं, तो फिर मन बिना ध्यान किस तरह से ? ' ध्यै चिन्तायाम्' पाठ से 'ध्यै' पर से बने हुए 'ध्यान'