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पढमं जोगे जोगेसु वा, मयं वितियमेकजोगंमि । तइयं च कायजोगे, सुक्कमजोगंमि य चउत्थं ।।८३॥
अर्थ:-पहला शुक्लध्यान एक या सर्व योग में होता है । दूसरा एक (ही) योग में होता है, तीसरा ( सूक्ष्म ) काययोग के समय, और चौथा अयोगी अवस्था में होता है।
याने सूक्ष्म काययोग का भी जहाँ सर्वथा उच्छेद हो गया है, ऐसी अवस्था में 'अप्रतिपाती' अर्थात् अटल ( नहीं टलने वाले ) स्वभाव वाली याने शाश्वत काल के लिए अयोग अवस्था कायम रहेगी।
इस तरह से १३वें के अन्त में सर्वथा योगनिरोध हो जाने से मन-वचन काय-योग के कारण जो आत्म-प्रदेश स्पन्दनशील याने हलन चलन के स्वभाव वाले थे, वे अब बिलकुल स्थिर हो जाते हैं । अत: यहां आत्मा मेरु की तरह निष्प्रकंप-स्थिर हो जाती हैं । मेरु याने शैल (पर्वतों) का ईश शैलेश । शैलेश के जैसी स्थिर अवस्था यह शैलेशी अवस्था है। १३३ गुणस्थानक पूरा हो कर १४वें के प्रारम्भ में यह अवस्था प्राप्त होती है। अतः कहा जाता है कि शैलेशी अवस्था प्राप्त इस केवल ज्ञानी महर्षि को मेरु की तरह स्थिर होने से परम शुक्लध्यान याने 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' नामक अन्तिम ४था शुक्लध्यान आता है।
इस तरह चारों शुक्ल ध्यानों का वर्णन कर के अब उसी के सम्बन्ध में शेष कथन करते हैं ।
४. शुक्लध्यानों में योग शुक्ल ध्यान के चार प्रकार बताये गये, इसमें पहला 'पृथकत्ववितर्क सविचार' एक मनोयोग आदि में होता है या तीनों योग में