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( २७६ ) पुष्वप्पओगओ चिय, कम्मविणिज्जरण-हेउतो वावि । सदत्थ - बहुत्ताओ, तह जिणचंदागमाओ य ॥८५|| चित्ताभावे वि सया, सुहुमोवरय-किरियाइ भण्णंति । जीवोपयोग - सब्भावओ भवत्थस्स झाणाई ।।८६॥
अर्थ:--(१) पूर्व प्रयोग के कारण या (२) कर्म निर्जरा का हेतु होने से भी, अथवा (३) शब्द के अनेक अर्थ होने से, तथा ४) जिनेन्द्र भगवान के आगम का कथन होने से सूक्ष्म क्रिया और व्युच्छिन्न क्रिया,-अलबत्ता वहां चित्त न होने पर भा जीव का उपयोगपरिणाम (भाव मन) हाजिर होने से-भवस्थ केवली के लिए ध्यान स्वरूप कहलाती है।
शब्द का अर्थ तो मन से चिंतन होता है, पर मन रहित वह चिंतनस्वरूप ध्यान कैसे हो सकता है ?
उत्तर - यहां 'ध्यान' शब्द का अर्थ निश्चलता लेने का है, चाहे वह मन को निश्चलता हो या चाहे काया की निश्चलता हो, परन्तु वे दोनों ध्यान स्वरूप ही है । इसमें जैम छद्मस्थ अर्थात् केवलज्ञानी नहीं बने हुए और ज्ञानावरणादि कर्म के उदय वाले जीव को मन-मनोयोग सुनिश्चल याने एक वस्तु पर स्थिर हो उसे ध्यान कहते हैं, इसी तरह केवलज्ञानी की काया-काययोग सुनिश्चल हो तो उसे ध्यान कहते हैं; क्यों कि दोनों में योग तो समान हैं। अत: यदि स्थिर मनोयोग ध्यान है, तो स्थिर काययोग भी ध्यान क्यों नहीं ? ___अयोग अवस्था में ध्यान किस तरह से ? चौथे प्रकार में ध्यान किस तरह होता है, यह कहते हैं ।