Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): 
Publisher: Divyadarshan Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 306
________________ ( २८१ ) सुक्कज्झाण-सुभावियचित्तो चिंतेइ झाण-विरमेवि । णिययमणुप्पेहाओ चत्तारि चरित्त - संपन्नो ।।८७।। अर्थ:- शुक्ल ध्यान से चित्त को जिसने अच्छी तरह भावित किया है वह चारित्र सम्पन्न आत्मा ध्यान बन्द होने पर भी अवश्य ही चार अनुप्रेक्षा का चिन्तन करे । ध्यान रूप नही गिनी जायगी। पुनः इस पर भी यह प्रश्न सम्भवित है कि ध्यै का अर्थ इतना ही क्यों ?' तो उपके समाधान में 'जिनेन्द्र आगम' नामक चौथा हेतु कहा ! सर्वज्ञ वचन अन्तिम प्रमाण है । ( इसीलिए रात्रिभोजन-त्याग को प्रमाण-सिद्ध करने में अनेक हेतु बताने के बाद अन्त में यही प्रमाण दिया जाता है कि जिनेश्वरदेव की आज्ञा है कि रात्रिभोजन नहीं करना, इससे उसका त्याग 'जिनाज्ञा' प्रमाण से सिद्ध है।) 'ध्यातव्य' द्वार का विवेचन हुआ। अब 'ध्याता' द्वार में 'शुक्ल ध्यान के ध्याता कौन ?' की बात आती है परन्तु धर्मध्यान के अधिकार में वह साथ में ही कह दिया गया है। अतः अब उसके बाद के 'अनुप्रेक्षा' द्वार का वर्णन करते हैं। शुक्ल ध्यान में अनुप्रेक्षा विवेचन : 'चारित्र-सम्पन्न महात्मा शुक्ल ध्यान में चढ़े हो', और वह ध्यानं है अतः सतत अन्तमुहूर्तं से ज्यादा नहीं टिक सकता, तो प्रारम्भ किये हुए ध्यान के अन्तमुहूर्त में बन्द होने पर उनके चित्त का क्या व्यापार चलता है ?' यह प्रश्न उठ सकता है। उसके जवाब में कहते हैं कि वह महात्मा अवश्य अनुप्रेक्षा का चिन्तन करने वाला हो। इसका कारण यह है कि उन्हें 'ध्यान' है इसलिए

Loading...

Page Navigation
1 ... 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330