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टता आ गई हो, तब वे योगनिरोध की क्रिया करते हैं । इसमें काययोग से मनोयोग और वचनयोग का सर्वथा निरोध कर लेने के बाद जब काययोग भी करीब आधा निरुद्ध हो जाता है और मात्र सूक्ष्म श्वासोच्छ् वास जैसी सूक्ष्म काय - क्रिया ही रह गई हो, वहां 'सूक्ष्म त्रिया अनिवर्ती' नामक तीसरा शुवल ध्यान आता है ।
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अनिवर्ती : संपूर्ण आत्मस्थिरता की ओर जाने वाले अत्यंत प्रवर्धमान परिणाम से अब निवृत्त नहीं होने वाली अर्थात् सूक्ष्म में से बादर में नहीं आने वाली सूक्ष्मकार्यक्रिया को सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती कहते हैं । यह अवस्था ही ध्यान है जिसे तीसरा शुक्लध्यान कहते हैं। यहां मन ही न होने से मन की एकाग्रता नहीं होती, तब भी इसे ध्यान क्यों कहा, यह आगे बतायेंगे ।
यह ध्यान क्षण भर रहने के बाद यह सूक्ष्म काययोग अवस्था भा बन्द हो जाती है। क्योंकि आत्मप्रदेशों को सर्वथा स्थिर निश्चल करने वाला अत्यन्त प्रवर्धमान पुरुषार्थ, बादर सूक्ष्म मनोयोग वचनयोग तथा बादर काययोग को बिलकुल रोक देने के बाद, अब सूक्ष्म काययोग को भी बिलकुल बन्द कर देने की तरफ आगे बढ़ रहा है। वह अब इस काययोग को सर्वथा रोक कर ही शांत होता है । यह सब १३वं गुणस्थानक के अन्तिम काल में होता है; जब कि १३वें गुणस्थानक का काल पूरा होते ही सर्वथा योगनिरोध आकर खड़ा रह जाता है । यह होते ही १४ वां 'अयोगी केवली' गुणस्थानक शुरु होता है ।
अब सूक्ष्म काययोग - कार्यक्रिया भी नहीं है, अतः कोई भी योग नहीं है, अतः वे केवलज्ञानी अयोगि केवली बनते हैं । वहां 'व्यवच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' ( व्युच्छिन्न व्युपरत क्रिया अप्रति पाती) नामक चौथा शुक्लध्यान शुरू होता है । 'व्यवच्छिन्न क्रिया'