________________
( २५९ ) तरह से मनोयोग नाम के वीर्य-स्कुरण से मनोद्रव्य छोड़ना याने विचार रूपी कार्य करना होता है। वाणी विचार के बारे में न्यायदर्शन की गलत मान्यता
वचनयोग से बोलने की तरह हो मनोयोग रूपी आत्मवीयं की स्कुरण। से सोचने का कार्य होता है। जैसे बोलने के लिए भाषाद्रव्य तथा वचनयोग वीय जरूरी है, वैसे ही सोचने के लिए मनोद्रव्य तथा मनोयोगवायं जरूरी है। न्यायदर्शन वाले बोलने के लिए आकाश में शब्दगुण पैदा करने का और सोचने के लिए अणु मन का आत्मा के साथ संयोग करने का मानते हैं, वह मान्यता इससे असत् सिद्ध होती है, बिलकूल बेढंगी सिद्ध होती है। नित्य मन तो एक ही प्रकार का है । वह नित्य आत्मा में भिन्न भिन्न विचार किस तरह पैदा कर सकता है ?....आदि। अस्तु। औदारिक वैक्रिय आहारक शरीर के व्यापार से गृहीत मनोद्रव्य की मदद से होने वाला जीव-व्यापार याने स्फुरित वीर्यात्मक आत्मपरिणाम ही मनोयोग कहलाता है। ___अब इन मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग तीनों का निरोध कैसे करते हैं, सो कहते हैं । योग-निरोध की प्रक्रिया
समय की दृष्टि से जब परम पद मोक्ष प्राप्ति में अन्तमुहत की देर हो, उस समय योगनिरोध किया जाता है। वह भी भवोपग्राही अर्थात् भव का उपग्रह याने पकड़ कर रखने वाले अघातीकर्म वेदनीय, आयु, नाम व गोत्रकर्म सब की स्थिति केवलि-समुद्घात द्वारा या स्वतः स्वाभाविक ही समान हो गई हो तब योगनिरोध करते हैं।
केवली समुद्घात : यह केवलज्ञानी का कर्मस्थिति को समान करने का एक प्रयत्नविशेष है। इसमें अन्त में केवलज्ञानी