________________
( २६५ )
पहले से रचे हुए (पूर्व रचित ) कर्मदलिकों को अब १४वें गुणस्थाaa में शैलेशी के प्रारम्भ से क्रमश: समय समय पर क्षय करते चले जाते हैं । वह भी उपान्त्य ( उप + अंत्य = अन्तिम से एक पहले = २ समय ) समय तक पहुंचते पहुंचते लगभग सब कर्म दलिकों को खाली कर देते हैं और बाकी बचे हुए में से कुछ यहां ( उपान्त्य) खाली करते हैं और कुछ अन्तिम समय में खाली करते हैं याने क्षय करते हैं। वह भी इस तरह से है : - मनुष्य गति, मनुष्य आनुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, वसनाम कर्म, बादर नामकर्म, पर्याप्त, सौभाग्य, आदेय, यश नामकर्म मिलकर नामकर्म की ९ प्रकृतियें तथा मनुवायु कर्म, उच्च गोत्र कर्म, और शाता अशाता वेदनीय में से कोई भी एक वेदनीय कर्म मिलकर बाकी के ३ अघाती कर्मों की ३ प्रकृतियें कुल मिलाकर १२ कर्मप्रकृति चरम समय में अजिन सिद्ध होने वाले को क्षय करने की शेष रहती हैं और जिनसिद्ध ( तीर्थङ्कर बना कर सिद्धी होने वाले को जिन नामकर्म और मिलाकर कुल १३ कर्म प्रकृति चरम (अन्तिम ) समय में क्षय करना होता है ।
१४वें गुणस्थानक के अन्तिम समय में सर्वं कर्म का क्षय हो जाने से अब आत्मा को कोई भी कर्म बाकी नहीं रहता अतः कर्म का उदय याने प्रौदयिक भाव भी नहीं रहता । अतः यहां सर्व कर्म क्षय के साथ ही भव्यत्व का भी नाश हो जाता है । क्यों कि भव्य जीव तो मोक्ष-गमन की योग्यता वाला याने सवं कर्म-क्षय की योग्यता वाला ही है। वह तो सूचित करता है कि जीव ने सर्व कर्म क्षय नहीं किया, परन्तु कर सकने की योग्यता उसमें है अर्थात् अभी सर्व कर्म क्षय नहीं किया किन्तु कर्म सत्तागत व उदय में हैं । यह कर्मों का उदय वही दयिक भाव है । वह है तभी तक ही भव्यत्व है । अतः अब यदि सर्व कर्म क्षय होने से औदयिक भाव व सत्तागत कर्म नहीं है तो भव्यत्व भी नहीं है । अत: सर्व कर्मों का अन्त होने पर भव्यत्व का भी