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जं पुण सुणिक्कंपं निवाय सरणप्पई वमियचित्तं । उपाय ठिइ भंगाइयाणमेगपि पज्जाए ।।७।। अवियार मत्थ वंजण जोगंतरओ तयं बितिय सुक्कं ।। पुव्वगय सुयालंबण मेगत्त वितक्कमविचारं ॥८॥
अर्थः- हवा रहित स्थान में रहे हुए स्थिर दीपक की तरह जो उत्पत्ति स्थिति नाश आदि में से किसी एक ही पर्याय में चित्त स्थिर हो, वह दूसरे प्रकार का शुक्ल ध्यान है। यह 'अविचार' याने अर्थ व्यंजन योग के परिवर्तन वाले (से होने वाले) संक्रमण रहित तथा पूर्वगत श्रू त के आलंबन से होने वाला होने से (तथा एकत्व याने अभेद वाला होने से) 'एकत्व वितक अविचार' ध्यान है।
है। अर्थात् ध्यान अर्थ पर से व्यंजन पर जाता है या योग पर जाता है । ऐसी वैकल्पिक अवस्था होती है। परन्तु अकेले 'अर्थ' का ही चिन्तन या अकेले 'व्यंजन' का ही चिन्तन ऐसा नहीं ।
पृथक्त्व-वितर्क' याने? यह सविचार चिन्तन भी 'पृथकत्व' से होता है अर्थात् भेद से भिन्नता से होता है । (अर्थात् इस ध्यान में ध्येय-ध्यान के भेद का अनुभव होता है । ) दूसरे 'पृथकत्व' का अर्थ 'विस्तीर्ण भाव' भी करते हैं। (अर्थात् यह ध्यान सविचार होने से उसका विषय विस्तार वाला-विस्तृत होता है।) अब 'वितक' याने 'त'। पहले कहे अनुसार 'पूर्व' गत शास्त्र के अनुसार यह ध्यान होता है।
सारांश यह कि यह ध्यान पृथकत्व वितर्क सविचार ध्यान है।
यह ध्यान किसको होता है? यह ध्यान रागभाव रहित व्यक्ति को ही आता है। जब तक अन्तरात्मा में रागपरिणाम जागता हो, वहां तक इस प्रथम शुक्ल ध्यान के सूक्ष्म