________________
( २५७ ) परिणाम बनता जाता है। इसमें वीर्य परिणाम कोई हल चल करने, कोई आहार श्वास भाषा मन लेश्या आ'द कई पुद्गल ग्रहण करने के लिए होता है । यह वीयं परिणाम (वीर्य-प्रयत्न, परिश्रम) आत्मा की अपनो औदारिक आदि काया के सहारे होता है, काया के सहारे बिना नही। इसीलिए तो मोक्ष प्राप्त जीवों में वीर्य गुण होने पर भी काया नहीं होने से हलन चलन या आहार कर्म आदि के पुद्गल ग्रहण करने आदि का कोई वीर्य परिणाम याने प्रयत्न नहीं होता। जब कि संसारी जीव को काया है । तभी उसके सहारे वैसे प्रयोजन से वीर्य गुण का स्फुरण होता है। औदारिकादि ३ काया
संसारी जीवों में मनुष्य और तिर्यंच ( एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक के जोवों के-औदारिक पुद्गल की बनी हुई याने
औदारिक काया होती है। (२) देव नारकों को वैक्रिय पुद्गलों की बनी हुई वैक्रिय काया होती है और (३) चौद 'पूर्व' शास्त्र के ज्ञान वाले महर्षि जब अपने पास की आहारक लब्धि से तीर्थकर देव की समवसरण आदि ऋद्धि देखने के लिए या उनको प्रश्ने पूछने जाने के लिए आहारक पुद्गलों की काया बनाते हैं तब वह आहारक काया होती है।
काया आत्मगुण है, कायगुण नहीं इन औदारिक-क्रिय-आहारक काया के सहारे हलन चलन या भाषा आदि पुद्गल ग्रहण करने का प्रयत्न हो, याने आत्मवीयं स्फुरायमान हों, उसे 'काय योग' कहते हैं। इससे काया में प्रवृत्ति, व्यापार या क्रिया होती है इतना ही, पर उसमें मुख्य कारणस्वरूप तो काया की मदद से आत्मा में स्फुरन होने वाला वीर्य ही है। यदि आत्मा काया को छोड़ जाय, तो फिर उस काया में ऐसी कोई