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ये 'योगनिरोध ' पदार्थ श्री नमस्कार सूत्र की नियुक्ति में कहा हुआ ही है । तब भी यहां का प्रसंग उसके वर्णन बिना खाली न रखने के लिए . सका यहां थोड़ा वर्णन किया जाता है कि 'योगनिरोध' क्या है ?
इसमें तीनों योगों का स्वरूप यह है : १. काययोग याने क्या ?
औदारिक आदि काया वाले जीव की वैसी वीर्य परिणति, वीर्य - परिणाम काययोग है । अर्थात् संसारी जीवों के शरीर के सहारे आत्मा में जो वीर्य गुरण स्फुयमान होता है, उसका नाम काययोग है ।
वीर्य यह आत्मपरिणाम क्यों ?
आत्मा में ज्ञान दर्शन सुख वीर्य आदि गुरण आगन्तुक याने बाहर नये आकर रहने वाले नहीं होते । किन्तु वे आत्मस्वभावभूत होते हैं । इससे ये गुण आत्मा से भिन्न भिन्न होते हैं । याने कथंचित् भिन्न, कथंचित् अभिन्न । इसमें 'कथंचित्' याने अमुक अपेक्षा से अभिन्न भी होने से वे ज्ञान-वीर्यादि गुण आत्मा स्वरूप ही हैं । जैसे तेल की छोटी बड़ी धार होती है, वह तेल से बिलकुल अलग कोई चीज नहीं है, किन्तु तेलस्वरूप ही है । तेल का ही एक परिणाम ( परिणति ) है; इसी तरह ज्ञान वीर्यादि गुरण स्फुरें ( प्रगट हो ) वे भो वैसे वैसे आत्मपरिणाम या आत्मपरिणति हैं, याने उन उन ज्ञान वीर्य आदि में परिणत बनने वाला आत्मा ही है ।
वीर्य परिणाम से कैसे कैसे कार्य
? आत्मा में अपने स्वभाव भूत ज्ञान दर्शन सुख वीर्यं आदि अनेक गुण जैसे जैसे स्फुरित होते हैं, वैसे वैसे वह आत्मा का ही ऐसा ऐसा ज्ञानपरिणाम, दर्शनपरिणाम, वीर्यपरिणाम आदि अनेक आत्म