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वाला होगा। सभी चौद पूर्वियों में यह सामर्थ्य नहीं होता, अनः ये सब इस तरह के शुक्लध्यान में आगे बढ कर वीतराग सर्वज्ञ नहीं बन सकते । क्षमादि का ऐसा आलम्बन करने के लिए सामर्थ्ययोग की आवश्यकता होती हैं। इच्छायोग और शास्त्रयोग से भी यह ज्यादा उच्च कोटि का योग है। यों तो तीर्थकर भगवान स्वयं भी अपने चारित्र-साधना के काल में कभी कभी 'भद्र प्रतिमा' महाभद्रप्रतिमा' व 'सर्वतो भद्रप्रतिमा' नाम अभिग्रह विशेष में रह कर सूक्ष्म ध्यान में मन केन्द्रित करते हैं। परन्तु इससे वहां केवलज्ञान प्रगट हो जाता हो, ऐसा नहीं होता। इसका कारण यही है कि क्षमादि का आलम्बन जितना पराकाष्ठा वाला, उच्च, व अन्तिम कोटि वा चाहिये, वैसा अभी नहीं सिया हुआ है। अभ्यास बढते नढते वह होता है; और इन क्षमा आदि का जोर बढाने के लिए तप-संयम की साधना के साथ साथ धर्मध्यान की बहुलता भरसकता रखने में आती हैं । वह जब पराकाष्ठा पर पहुँचने की तैयारी होती है, तब शुक्लध्यान के पहले दो प्रकार का ध्यान खड़ा होता है और उसमें परमाणु पर संकुचित हो कर मन की स्थिरता होती है । ___ यह पहले दो प्रकार की बात हुई। वह छद्मस्थ को होता है । शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकार जिन अरिहन्त को या केवलज्ञानी को अन्त में ही आता है। वहां वे अ-मना याने मन रहित या मनोयोग रहित बन जाते हैं।
प्रश्न- केवलज्ञानी तो सर्वज्ञ होने से सब को ही प्रत्यक्ष देखते हैं, अतः उसने नहीं देखा वैसा तो कुछ होता ही नहीं, इससे कुछ भी चिंतन करने का बाकी नहीं रहता, तो मन का उपयोग न होने से वे अ-मना ही हैं न ? फिर 'अन्त में' अ-मना बनने का क्यों कहा?
उत्तर यह बात सच है कि उनका अपने लिए चतनशील मन नहीं है, किन्तु यदि कोई अनुत्तरवासी देव जैसे स्वर्ग में बैठे बैठे