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जह सव्वसरीरमयं मंतेण विसं निरु भए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्ज पहाण यर - मंत- जोगेणं ॥ ७१ ॥ तह तिहुयणत विसयंमणोवि जोगमंतबलजुत्तो । परमाणु मि निरु भई अवरोह तओ वि जिणविज्जो || ७२।। उस्सारिवणभरो जह परिहार कमसो हुयासुव्व । थोविंधणावसे सो निव्वा तओवणीओ य || ७३ ॥ तह विसघणहीणो मोहुयासो कमेण तयंभि । विसधणे निरुभइ निव्वाइ तओऽवणीओ य || ७४ ।। तोयमिय नालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा । परिहाइ कमेण जहा, तह जोगिमणोजलं जाण ॥ ७५ ॥
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अथ: - जिस तरह पूरे शरीर में व्याप्त जहर मन्त्र द्वारा ( संकुचित करके ) डक ( दंश) प्रदेश में लाया जाता हैं । ( और तब ) श्रेष्ठतर मन्त्र के योग से दंशस्थान से भी दूर किया जाता है, उसी तरह त्रिभुवन रूपी शरीर में व्याप्त मन रूपी जहर को ( जिनवचन के ध्यान रूपी) मन्त्र के सामथ्यं वाला परमाणु मे ला देता हैं, (और फिर ) जिन - केवलज्ञानी रूपी वैद्य उसमें से भी ( श्रचिन्त्य प्रयत्न से मनो विष को ) दूर कर देता है ( गाथा ७३ ) जैसे क्रमशः काष्ठ समूह दूर होने से अग्नि की लपटें कम होती जाती है और थोड़े से ईंधन पर थोड़ा सा अग्नि रह जाता है, और वह थोड़ा सा ईंधन
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उसी तरह विषय रूपी मन रूपी अग्नि थोड़ हा विषय रूपी और उस थोड़े से विषय ईंधन से भी ( गाथा ७४) जैसे कच्चे मिट्टी के
भी दूर हो जान पर अग्नि शांत हो जाता है, ईंधन क्रमशः घटता जाने पर ईंधन पर संकुचित हो जाता हैं हटा लेने पर शांत हो जाता है ।