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( २४८ ) करते हैं। इसमें एकाग्रता इतनी ज्यादा होती है कि मन परमाणु पर स्थापित हो जाता है, परमागु के चिंतन में मन चिपक जाता है।
प्रश्न - त्रिभुवन के विषयों में भटकता हुअा मन ऐसा एकाग्र कैसे बन सकता है ? ..... उत्तर-ऐसे मन को त्रिभुवन के विषयों में से संकुचित कर दिया जाता है। यह संकुचित करने का कार्य क्रमश: किया माता है अर्थात् मन एक एक विषय-वस्तु क. त्याग करते करते
आखिर परमाणु बस्तु पर आ कर विश्राम करता है, केन्द्रित हो जाता है।
(संकोच क्रिया की कल्पना इस प्रकार की जा सकती है । उदा० त्रिभुवन में ऊर्ध्व लोक मध्यलोक अधोलोक ये तीन लोक आते हैं । अब मन तीनों लोक के विचार में सें मध्यलोक के विचार पर स्थिर किया जाए यह इतना संकोच हुआ। ख स लक्ष्यपूर्वक यह संकोच होने से मन अब ऊर्ध्व अधोलोक का विचार नहीं करता। अब केवल मध्य लोक पर केन्द्रित हुआ, स्थिर हुरा। यह स्थिरता निश्चित होने के बाद में मन उसमें से संकुचित होकर अन्य सब द्वीपसमुद्र छोड़ कर मात्र जम्बूद्वीप पर एकाग्र होता है। इसमें भी आमे बढ कर अन्य सब छोड़कर मेरू पर केन्द्रित होता है। उसमें भी मेरू के किसी ऊर्ध्व भाग पर, फिर उसमें भी रहे हुए अनन्त पुद्गलस्कन्धों को छोड़कर किस एक स्कंध पर मन स्थिर किया जाता हैं। उसमें से पुनः संकोच करके इस एक स्कंध के अनन्त अणुओं क छोड़ कर संख्यात अणुओं के किसी एक हिस्से पर तन्मय होता है। उसमें से भी संकुचित करके प्रत्येक अणु के किसी हिस्से पर, फिर उसमें से पांच पर, तीन पर और अन्त मैं एक परमाणु पर केन्द्रित किया जाता हैं। इस प्रक्रिया में आगे बढ़ते बढते पहले पहले के विषय का संकोच याने त्याग हुआ; अतः बाद में उन विषयों का बिलकुल