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लेने के बाद उसका सत्कार क्या ? (३) 'इच्छा है आगाससमा अयंता,' लोभ का तो पार नहीं। लोभ का खड्डा तो ज्यों ज्यों उसे भरते जायं, बढता जाता है (४) बाहर का लोभ करने से उसका मूल्यांकन हो कर अपनी प्रात्मा का मूल्यांकन कम होता है । मन को आत्मा की अपेक्षा जड़ का महत्त्व ज्यादा लगता है । आत्मा का महत्त्व कम गिनने से उसके हित का विचार भी गौण हो जाता है । (५। 'सर्व गुण विनाशको लोभः', लोभ सर्व गुणों का नागक बनता हैं । (६) पाप के बाप लोभ के कारण हो आरम्भ समारम्भ, झूठ चोरी आदि कितने ही पापाचरण होते हैं। इत्यादि सोचने से, उसकी भावना करने से लोभ के उदय को रोका जा सकता है। इसी तरह अन्तर में उदय हुए लोभ को निष्फल करने के लिए उसका लम्बा विचार ही न करें, और वाणी तथा काया एवं इन्द्रियों की लोभ तथा रागवश होने वाली प्रवृत्ति को रोका जाय ।
इस तरह से क्रोध मान, माया लोभ का उदय-निरोध और निष्फलीकरण करने के रूप में उनका त्याग किया जाय यही क्षमा, मृदुता, ऋजुता व मुक्ति (निर्लोभ) है। (ईसी में ईर्ष्या, भय, असहिष्णुता, द्वेष, हर्ष, खेद आदि दोषों का त्याग करने का भी समझ लेना चाहिये। इस तरह क्षमा आदि के अभ्यास में आगे बढने से वे सिद्ध हों तव वे शुक्लध्यान के लिए आलम्बनरूप बन जाते हैं। क्षमादि में स्थिर रहने से उनके अ लम्बन से शुक्लध्यान में चढा जा सकता है, क्योंकि यह ध्यान सूक्ष्म पदार्थ के अत्यन्त स्थिर चिंतनरूप है। यदि इन क्षमादि की स्थिरता न हो अर्थात् क्रोधादि का बराबर दृढ त्याग न हो, तो क्रोधादि के उठने से वह ध्यान टिक नहीं सकता। अतः उनके सम्पूर्ण त्याग के आधार पर ही शुक्लध्यान हो सकता है।
ये क्षमादि याने क्रोधत्याग आदि कषायत्याग यह जिनमत,