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हाथ से नष्ट करूं तभी होगा। अन्य किसी की ताकत नहीं कि वह नष्ट करे । और वह सलामत है तो फिर मेग वास्तविक कुछ भी नहीं बिगड़ना। तो मुझे किस लिए सामने वाले पर गुस्सा करना चाहिये ?' इस तरह सोच कर अन्दर के भभकते हुए क्रोध को निष्फल किया जा सकता है ।
२. मान कषाय को रोकना : इस तरह मान कषाय को रोकने के लिए उपरोक्त बातों में से कितने ही विचार काम आ सकते हैं। उन सब को यहां दोहराया नहीं जाता। उसके अलावा ये भी विचार किये जा सकते हैं। (१) अनन्तज्ञान, महान अवधिज्ञान या १४ पूर्व का श्रुतज्ञान तथा महापुण्य एव महाशक्ति धारण करने वालों ने या महासुकृत वालों ने भी अभिमान नहीं किया, तो मैं किस बात पर अभिमान करु ? (२) अनन्त कर्मों से दबे हुए गुलाम जैसा मैं किस मुह से अभिमान करु ? (३) मैंने ऐसे कौन से महासुकृत या पहापरोपकार किये हैं ? कौन से ऐसे महान सद्गुण प्राप्त किये हैं ? कौन सो महा तप संयम की साधना की हैं ? मैंने अपनी कौन सी मनोवृत्तियों पर कौनसा विजय प्राप्त किया है ? तो फिर मुझे अभिमान करने का हक क्या है ? (४) यदि बाह्य वभव सत्तामन्मान आदि पर अभिमान होता है तो चक्रवर्ती के अ.गे वह किस गिनती में है ? यदि आंतरिक तप या ज्ञान पर होता है तो पूर्व पुरुषों की ज्ञान समृद्धि या तप समृद्धि के आगे वह किस गिनती में है कि उसका अभिमान करु ? (५) राजा रावण की तरह अभिमान से अन्त में गिरने का ही होता है, तो उससे तो मान न करने से ही श भा और शान्ति रहती है... आदि सोचकर मान मद अहंकार को रोकना चाहिये । मन में मान उठा हो, तो भी उसे सफल नहीं होने देना चाहिये। उस पर आंखें चढाना, अभिमान के शब्द बोलना, सामने वाले का तिरस्कार करना, उसकी निंदा करना,